पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/२०६

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परिवर्तन-प्रकरण स्फुट रस-काव्य, द्वितीय में अलंकार एवं तृतीय में भावभेद और रस- भेद का वर्णन है । प्रथम में २० और द्वितीय में ११४ पृष्ठ हैं। तृतीय ग्रंथ अभी प्रकाशित नहीं हुआ है । द्विज बलदेवजी ने प्रथम ज्योतिष, कर्मकांड और व्याकरण को पढ़ा था। इनके चित्त में प्रेम की मात्रा विशेष थी, इसी कारण इनको कान्य करने का शौक हुधा । इन्होंने १८ वर्ष की अवस्था में दासापुर की भक्तेश्वरी देवी पर अपनी जिह्वा काटकर चढ़ा दी थी। अपनी जिह्वा का कटा हुआ शेष भाग भी इन्होंने हमें दिखाया है। अब वह ठीक हो गई है, परंतु उसमें काटने का चिह्न अब भी बना हुआ है। इन्होंने काशी-वासी स्वामी निजानंद सरस्वती से ३२ वर्ष की अवस्था में कान्य पढ़ा । इसके पहले भी ये महाशय काव्य करते थे । संवत् १९२६ में भारतेंदु हरिश्चंद्र, बंदनपाठक, शास्त्री बेचनराम, सरदार, सेवक, नारायण, रना- कर, गणेशदत्त व्यास आदि कवियों ने इन्हें उत्तम कवि होने की सनद दी। इस पर इन सब महाशयों के हस्ताक्षर हैं और यह अवस्थीजी ने हमें दिखाई है। संवत् १९३३ में इनके पिता का देहांत हुश्रा । ये महाशय काव्य से ही अपनी जीविका प्राप्त करते थे और बड़े-बड़े राजों-महाराजों के यहाँ जाते थे । वे महाशय काशिराज, रीवा- नरेश, महाराजा जयपूर और महाराजा दरभंगा के यहाँ क्रम से गए हैं और उन सबके यहाँ इनका सम्मान हुआ । रामपुर मथुरा (ज़िला सीतापुरवाले ) और इटौंजा (ज़िला लखनऊ) के राजाओं ने इनका विशेष सम्मान किया। इन राजाओं के नाम बलदेवजी ने ग्रंथ भी बनाए । इनकी कविता से प्रसन्न होकर बहुत-से राजाओं ने इन्हें भूमि और अन्य वस्तुओं का पुरस्कार दिया । वस इसी प्रकार पाई हुई दो हजार बीघा भूमि इन्होंने पैदा की, जिसमें से ५०० बीघा वास लगाने को मिली । रामपुर के ठाकुर महेश्वरबहशजी ने संवत् १९५४ में एक हाथी भी इन्हें दिया था। बहुत स्थानों पर इन्हें हजारों रुपए