पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/२०३

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मिश्रबंधु-विनोद जोनी लरिकैया दै मैंकैया मैं बलैया जाउँ, बैंयाँ बैंयाँ चलत चिरैयौँ गहैं धाय-धाय । पीछे-पीछे मैया हेन लैया जैसे गैया हाथ, मेवा औ मिठैया गहि देती मुख नाय-नाय; वारें नोन रैया औध अानंद बढ्यो, मेरे । निधनी के छैया दुलग4 गुन गाय-गाय ॥ ३॥ इनका राससर्वस्व हमने छन्नपूर में देखा है। उसमें १३ बढ़िया छंद हैं। (२०५७) लछिराम ब्रह्मभट्ट ये महाशय संवत् १८६८ में स्थान अमोड़ा, जिला बस्ती में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम पलटनराय था। इनका एक २६ पृष्ठ का जीवन चरित्र दुमराव निवासी पंडित नकछेदी तिवारी ने लिखा है, जो हमारे पास वर्तमान है । दस वर्ष की अवस्था में लछि- रामजी ने लासाचक, जिला सुलतानपूर-निवासी ईश कवि से काव्य सीखना प्रारंभ किया। सोलह वर्ष की अवस्था में ये अवध नरेश महाराजा मानसिंह के यहाँ गए और उन्होंने कृपा करके इन्हें कविता में और भी परिपक्व किया । महाराजा साहब की इन पर उसी समय से बड़ी कृपा रहती थी। उन्होंने पीछे से इन्हें कविराज की पदवी भी दी और सदैव इनका मान किया । यों तो लछिरामजी बहुत-से राजाओं-महाराजाओं के यहाँ गए, परंतु ये महाराजा अयोध्या और राजा बस्ती को अपनी सरकार समझते थे। राजा सीतलाबख़्शसिंह (राजा बस्ती) ने इन्हें १०० बीघा का चरथी ग्राम, हाथी आदि भी दिया । इनका मान बड़े-बड़े महाराजाओं के यहाँ होता था और इन्होंने निम्न महाशयों के नाम ग्रंथ भी बनाए- मानसिंहाष्टक, २ प्रतापरत्नाकर ( महाराजा प्रतापनारायण- सिंह अयोध्या-नरेश के नाम ),३ प्रेमरत्नाकर ( राजा बस्ती के नाम),