पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१९९

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१३. मिश्रबंधु-विनोद चंदन चहन चोवा चाँदनी चंदोवा चार, धनो घनसार घेर सींच महबूबी के; असर उसीर सीर सौरभ गुलाब नीर, गजब गुजारै अंग अजब अजूबी के। फेरन फबत फैलि फूलन फरस तामैं, फूल-सी फनी है बाल सुंदर सु खूबी के ; बिसद बिताने ताने तामैं तहखाने बीच, बैठी खसखाने मैं खजाने खोलि खूबी के ॥ ४ ॥ (२०८३ ) मोहन । इस नाम के चार कवि हुए हैं, जिनमें से हम इस समय चर- खारीवाले मोहन का वर्णन करते हैं, जिन्होंने १९१६ में शृंगार- सागर नामक ग्रंथ बनाया । यह ग्रंथ हमने देखा है। इनकी कविता अच्छी होती थी। ये साधारण श्रेणी के कवि हैं। चंद-सो बदन चारु चंद्रमा-सी हाँसी परि- पूरन उमा-सी खासी सुरति सोहाती है। नीति प्रीति रीति रति रीति रस रीति गीत, गीत गुन गीत सीन सुख सरसाती है। . मोहन मसाल दीप माल मनि माल जाति, जाल महताब आब दुरि दुरि जाती है। आछो अति अमल अनूप अनमोल तन, श्रतन अतोल आभा अंग उफनाती है। . (२०८४ ) मुरारिदासजी कविराज _थे सूरजमल कविराज के दत्तक पुत्र थे। इनका जन्म संवत् १८९५ में, बंदी में, हुश्रा और मृत्यु संवत् १९६४ में । ये संस्कृत, प्राकृत, डिंगल तथा हिंदी भाषा के अच्छे ज्ञाता और कवि थे । इन्होंने बूदी-नरेश रामसिंहजी की आज्ञा से वंश-भास्कर को पूरा