पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१९३

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मिश्रबंधु-विनोद होत्रीजी ने बहुत कम कवियों के विषय पूज्य भाव प्रकट किया । ये महाशय तुलसीदास और सेनापति को बहुत अच्छा समझते और पद्माकर एवं ठाकुर को बहुत निंध मानते थे। इनकी समा- लोचना में रियायत का नाम नहीं है। आप प्रत्येक विषय पर अपना स्वतंत्र विचार प्रकट किए विना नहीं रहते थे, चाहे वह श्रोता को अप्रिय ही क्यों न हो । कविता के इतने प्रेमी थे कि जब ॥ बजे दिन को हम इनके यहाँ गए, तब श्राप स्नान के लिये जा रहे थे, परंतु विना स्नान किए ही ३ घंटे तक हमारे पास बैठे रहे और हमारे बहुत कहने पर भी हमारे चले आने के प्रथम आपने स्नान करना स्वीकार न किया । इनसे बात करने में हमें निश्चय हुआ कि इनके चित्त में कविता-प्रेम-पादप का सच्चा अंकुर है, परंतु इन सब बातों के होते हुए भी इनको प्राचीन कवियों के पद तथा भाव उड़ा लेने की ऐसी कुछ बानि-सी पड़ गई है कि इनके उत्तम छंदों में भी चोरी का संदेह उपस्थित रहता है। फिर भी इनकी भाषा उत्तम और कविता प्रशंसनीय है। हम इनकी गणना कवि तोष की श्रेणी उदाहरण- अंग पारसी से जुपै भाखत हौ हरि पारसी ही को निहारा करौ; सम नैन जो खंजन जानत तौ किन खंजन ही सों इसारा करौ। भनि संकर संकर से कुच तौ कर संकर ही पर धारा करौ; मुख मेरो कहौ जो सुधाकर सो तौ सुधाकर क्यों न निहारा करौ ॥१॥ प्रबाल-से पायें चुनी-से लला नख दंत दिएँ मुकतान समान, प्रभा पुखराज-सी अंगनि मैं बिलसैं कच नीलम से दुतिमान । कहै कबि संकर मानिक से अधरारुन होरक-सी मुसकान ; विभूषन पनन के पहिरे बनिता बनी जौहरी की-सी दुकान ॥२॥ क्रोध में आकर इस कवि ने बहुत-से मँडौमा भी बनाए हैं। थोड़े