पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१९२

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परिवर्तन-प्रकरण मूल मन्दः कवियशःप्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् । प्रांशु लभ्ये फले लोभादुबाहुरित्र वामनः ॥ ३ ॥ अनुवाद कवियों के यश अभिवापी मैं मंदबुद्धि हँसी को पहुँगा, जैसे लंबे मनुष्य के हाथ लगने योग्य फल की ओर लोभ से ऊँची बाह करनेवाला बौना ॥ ३ ॥ (२०७८) शंकरसहाय अग्निहोत्री (शंकर ) ये महाशय दरियावाद जिला बारहबंकी-निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। इनका जन्म संवत् १८९२ विक्रमीय का है। छ: सौ वर्पले इनके पूर्व-पुरुप इसी ग्राम में रहे । इनके पिता का नाम पंडित बच्चूलाल और मातामह का पं० रामवक्स तिवारी था। ११ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हुआ । इनके कोई पुत्र नहीं है, परंतु दो पुत्री व दो दौहित्र वर्तमान हैं, जिनके नाम संगमलाल और कृष्णदत्त हैं। ये दोनों इन्हीं के साथ रहते हैं। संगमलाल कविता भी करते हैं । शंकरसहायजी ने ३२ वर्ष की अवस्था से काम करना प्रारंभ किया। पहले १६ वर्ष तक इन्होंने पाठशालाओं में अध्यापकी की और फिर २२ वर्ष पर्यंत राय शंकरबली तनल्लुकदार के यहाँ जिलेदारी को । अब तीन साल से पेंशन पाते हैं। इन्होंने कविता-मंढन-नामक एक अलंकार-ग्रंथ बनाया है, जिसमें ३७८ छंद हैं, जिनमें स्वैया बहुतायत ले हैं और घनाक्षरी कम । यह ग्रंथ श्रमी मुद्रित नहीं हुआ है और न क्रमबद्ध लिखा ही गया है। हम इनसे मिलने दरियायाद गए थे, जहाँ उपर्युक्त हाल इन्हीं महाशय के द्वारा हमें विदित हुया, परंतु अपना ग्रंथ ये हमें नहीं दिखा सके। इसके अतिरिक्त इन्होंने स्फुट छंद भी बनाए हैं। इस कवि में समालोचना- शक्ति बहुत तीव्र है। हमारे करीव ३ घंटे बातचीत करने में अग्नि-