पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१९१

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मिश्रबंधु-विनोद पहाड़ों की चोटी से नीचे को खिसलती जाती है । वृत्तों की पीड़ें जो पत्तों में ढकी हुई-सी थीं, खुलती पाती हैं । नदियों का पतलापन मिटता जाता है और भूमंडल हमारे निकट श्राता हुआ ऐसा दोखता है, मानो किसी ने ऊपर को उछाल दिया है।" मेघदूत रस बीच मैं लै चलियो निर विंध को जो मग तेरो निहारती हैं; कटि किकिन मानो विहंगम पाँति तरंग उठे झनकारती हैं। मनरंजनि चाल अनोखी चलें अरु भौंर सी नाभि उघारती हैं। बतरात है मीत सों आदि यही तिय विभ्रम मोहनी डारती हैं। मीत के मंदिर जाति चली मिलिहैं तहँ केतिक राति में नारी मारग सूझ तिन्हैं ।न परै जन्न :सूचिका-भेद झुकै अँधियारी । कंचन रेख कसौटी-सी दामिनि सू चमकाइ दिखाइ अगारी; कीजियो ना कहुँ मेह की घोर भरें अबला अकुलाइ बिचारी। रघुवंश वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये । जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥ १ ॥ अनुवाद वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त मैं चंदना करता हूँ। वाणी और अर्थ की नाई मिले हुए जगत् के माता-पिता शिव पार्वती को ॥३॥ क्क सूर्यप्रभवो वंशः क चाल्पविषया मतिः । तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनामि सागरम् ॥ २॥ अनुवाद कहाँ वह वंश जिसका पिता सूर्य है और कहाँ थोड़े व्यवहार- चाली (मेरी) बुद्धि, मैं अज्ञानता से कठिन समुद्र को फूस की नाव से उतरना चाहता हूँ ॥२॥