पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१९०

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- परिवर्तन-प्रकरण ११२१. भाषा सरल एवं ललित है, और उसमें एक विशेषता यह भी है कि अनुवाद शुद्ध हिंदी में किया गया है। यथासाध्य कोई शब्द फारसी- अरबो का नहीं आने पाया है। संवत् १९३८ में इन महाशय ने प्रसिद्ध मेघदूत के पूर्वाई का पद्यानुवाद छपवाया और संवत् १६४० में उसके उत्तराई का भी अनुवाद प्रकाशित करके ग्रंथ पूर्ण कर दिया। यह ग्रंथ चौपाई, दोहा, सोरठा, शिखरिणी, सवैया, छप्प, कुंडलिया और घनाक्षरी छंदों में बनाया गया है, जिनमें सवैया और घनाक्षरी अधिक हैं। इन्होंने दोहा, सोरठा और चौपाइयों में तुलसीदास की मापा रक्खी है और शेप छंदों में व्रजभापा । इनके गद्य में भी दो-चार स्थानों पर ब्रजभाषा मिल गई है, परंतु उसकी मात्रा बहुत ही कम है। इनकी भाषा मधुर एवं निर्दोष है, परंतु इनका पद्य-भाग उतना अधिक प्रशंसनाय नहीं है, जितना कि गद्य- भाग । इनके पद्य-भाग को गणना छत्र कवि की श्रेणी में श्री जाती है, और गद्य के लिये इनकी जितनी प्रशंसा की जाय, वह सब योग्य है। वर्तमान हिंदी-मापा का प्रचार जब तक भारतवर्ष में रहेगा, तव. तक विद्वन्मंडली में राजा साहब का नाम बढ़े श्रादर के साथ लिया जावेगा । इनकी रचना में से कुछ उदाहरण नीचे उद्धृत किए जाते हैं- शकुंतला नाटक __ "अनसूया--(हौले प्रियंवदा से) सखी, मैं भी इसी सोच- विचार में हूँ। अब इससे कुछ पूछगी-(प्रकट) महात्मा, तुम्हारे मधुर वचनों के विश्वास में श्राकर मेरा जी यह पूछने को चाहता है कि तुम किस राजवंश के भूपण हो? और किस देश की प्रजा को विरह में व्याकुल छोद यहाँ पधारे हो? क्या कारण है, जिससे तुमने अपने कोमल गात को इस कठिन तपोवन में आकर पीड़ित किया है ?" __"(१७२) पृथ्वी ऐसी जान पड़ती है, मानो ऊपर को उठते हुए