पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१८९

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११२० मिश्रबंधु-विनोद परमात्मा की प्रतिमा परिमाण सादृश्य वा मूर्ति नहीं है। जो वाणी की इयत्ता, अर्थात् यह जल है लीजिए, वैसा विषय नहीं और जिसके धारण और सत्ता से वाणी की प्रवृत्ति होती है, उसी को ब्रह्म जान और उपासना कर, और जो उससे भिन्न है, वह उपासनीय नहीं । जो मन से इयत्ता कर मन में नहीं पाता, जो मन को जानता है, उसी ब्रह्म को तु जान और उसी की उपासना कर, जो उससे भिन्न जीव और अंतःकरण है, उसकी उपासना ब्रह्म के स्थान में मत कर । (२०७७) लक्ष्मणसिंह राजा ये महाशय आगरा के रहनेवाले थे । इनका कविताकाल संवत् १६१६ के इधर-उधर है। ये संवत् १९१३ में डिपुटी कलेक्टर नियत हुए, और १९४६ में इन्हें पेंशन मिती । संवत् १९२७ में सरकार से इन्हें राजभक्ति के कारण राजा की पदवी मिली। इनका जन्म संवत् १८८३ में हुआ, और १९५३ में इनका स्वर्गवास हुआ । राजा साहब ने पहलेपहल खड़ी-बोली में कालिदास-कृत "शकुंतला- नाटक" का अनुवाद गद्य में करके संवत् १६१६ में प्रकाशित किया। इस पुस्तक का हिंदी-रसिकों में बहुत बड़ा सम्मान हुश्रा, और प्रथम संस्करण की सब प्रतियाँ बहुत जल्द बिक गई । राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने शिक्षा विभाग के लिये बने हुए अपने गुटका में इसे भी उद्धृत किया । संवत् १९३२ में विलायत के प्रसिद्ध हिंदो-प्रेमी ऋडरिक पिनकाट महाशय ने इसे इंगलिस्तान में छपवाया । इस पुस्तक को इंगलैंड में यहाँ तक आदर मिला कि यह इंडियन सिविल- सर्विस की परीक्षा-पुस्तकों में सम्मिलित की गई । संवत् १९५३ में यह फिर प्रकाशित की गई । इस बार राजा साहब ने मूल श्लोकों का अनुवाद गद्य के स्थान पर पद्य में कर दिया । संवत् १९३४ में राजा साहब ने रघुवंश का अनुवाद गद्य में मूल श्लोकों के साथ प्रकाशित किया। यह एक बहुत बड़ी पुस्तक है। इसके अनुवाद की