पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१८८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परिवर्तन-प्रकरण १११६ उपदेशकों द्वारा सर्वसाधारण के ज्ञान-वृद्धि की रीति चलाई है, जिससे हिंदी में वक्तृता देनेवालों और वक्तृता-शक्ति की अच्छी उन्नति हो रही है। इस प्रथा के कारण बहुत-से उपदेशक और व्याख्यानदाता हुए हैं, जिनका वर्णन यथास्थान किया जावेगा । हमें खेद के साथ यह भी लिखना पड़ता है कि ऐसे बड़े-बड़े प्रसिद्ध एवं प्रवीण व्याख्यानदाताओं में भी पंडितमोहिनी विद्या के स्थान पर मूर्खमोहिनी विद्या अधिक पाई जाती है । इसका कारण शायद भारतवर्ष के साधारण जनसमुदाय की मूर्खता ही हो, और उनके युक्तिपूर्ण व्याख्यान न समझने के कारण ही मूर्खमोहक व्याख्यान दिए जाते हों, परंतु फिर भी बड़े-बड़े विद्वानों के व्याख्यानों में भी मूर्खमोहिनी शक्ति का प्रयोग देखकर परम शोक होता है । उपदेशकों की प्रशंसा में इतना अवश्य कहना चाहिए कि बहुतों की जिह्वा में ईश्वर ने इसना बल दिया है कि वे अपने श्रोताओं को रुला तक सकते हैं । समाज और मंडल दोनों के सहायक हिंदी की अच्छी उन्नति कर रहे हैं, और उन्होंने अच्छे-अच्छे ग्रंथ भी रचे हैं । समाज और मंडल द्वारा कई अच्छे-अच्छे पत्र भी परिचालित हो रहे हैं। इस निबंध को हम स्वामीजी की भापा का एक नमूना देकर समाप्त करते हैं। उदाहरण- जो असंभूति अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान में उपासना करते हैं, वे अंधकार अर्थात् अज्ञान और दुःखसागर में इवते हैं और संभूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्यरूप पृथ्वी आदि भूति, पापाण और वृत्त आदि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं, वे उस अंधकार से भी अधिक अंधकार अर्थात् महामूर्ख चिरकाल घोर दुःखरूप नरक में गिरके महालेश भोगते हैं । जो सब जगत् में व्यापक है, उस निराकार