पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१८५

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१११६ मिश्रबंधु-विनोद पाखंड-खंडिनी ध्वजा स्थापित करके आपने बहुत-से पंडितों और साधुओं को शास्त्रार्थ में पराजित किया। इसके बाद फरुखाबाद, कान- पूर इत्यादि में स्वामीजी से बड़े-बड़े शास्त्रार्थ होते रहे, जहाँ हर जगह इनकी जीत होती रही। अंततोगत्वा सं० १९२६ में इस महात्मा ने आर्या- वर्त की केंद्रस्वरूपा श्रीकाशीपुरी में पहुँचकर वहाँ के महात्माओं और पंडितों को शास्त्रार्थ के वास्ते ललकारा । श्राप तीन वर्ष के भीतर ५ या ६ दफ़ा काशी धाम में गए । काशी के भारी शास्त्रार्थ में हिंदू लोग विशुद्धानंद स्वामी को और समाजी लोग इन स्वामीजी को जीता हुआ कहते हैं। इसके बाद स्वामीजी पटना, कलकत्ता, मुंगेर इत्यादि पूर्वी शहरों में घूम-घूमकर शास्त्रार्थ करते रहे । अनंतर इन्होंने दक्षिण की यात्रा की, और ये जबलपूर, पूना इत्यादि होते हुए बंबई होकर काठियावाड़ पहुँचे। वहाँ भी खूब शास्त्रार्थ हुए । इनका विचार बहुत दिनों से "आर्यसमाज" स्थापित करने का था, परंतु उसके स्थापन में विघ्न पड़ते रहे । अंत में चैत्र शु. ५ सं० १९३२ को बंबई के मुहल्ला गिरगाम में डॉक्टर मानिकचंदजी की वाटिका में पहले-पहल आर्य-समाज की स्थापना हुई और उसके २८ नियम बनाए गए। फिर वहाँ से पूना आदि घूमते हुए ये महाशय दिल्ली पहुंचे। वहाँ से पंजाब के प्रायः सभी शहरों में आपने शास्त्रार्थ करके हर जगह विजय पाई । इसके बाद आपने मध्यप्रदेश, राजपूताना इत्यादि में घूम-घूमकर धर्म-प्रचार किया। इस समय तक अन्य धर्म- वाले कुछ कट्टर मूर्ख इनके घोर शत्र हो गए। उनके षड्यंत्रों से २६ सितंबर सं० १९४० को स्वामीजी को दूध में पीसकर काँच दिया गया । जिससे बहुत व्यथित होकर ये अजमेर को चले गए और बहुत समय तक पीड़ित रहे । अंत को यह भारत-भानु कार्तिक बदी १५ सं० १९४० को ५६ बरस तक भारत को प्रकाशित रखकर इस असार संसार को छोड़ ६ बजे संध्या को अस्त हो गया।