पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१८४

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परिवर्तन-प्रकरण चौंतीसवाँ अध्याय दयानंद-काल ( १९१६-२५) (२०७६) महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती और आर्य-समाज स्वामीजी का जन्म संवत् १८८१ में औदीच्य ब्राह्मण अंबाशंकर के यहाँ मौरची शहर काठियावाद प्रदेश में हुआ था जहाँ पर इनका नाम मूलशंकर रक्खा गया । इनके पिता ने २१ बरस की अवस्था में इनका विवाह करना चाहा, परंतु इन्होंने छिपकर घर से प्रस्थान कर दिया। एक ब्रह्मचारी ने इनको शुद्ध चेतन नाम का ब्रह्मचारी बनाया। पीछे से श्रीपूर्णानंद सरस्वती से संन्यास लेकर स्वामीजी ने दयानंद सरस्वती नाम धारण किया । इन्होंने कृष्ण शास्त्री से व्याकरण पढ़ा और योगानंद स्वामी तथा दो और महात्माओं से योग सीखकर आबू पर्वत पर उसका अभ्यास किया। इधर-उधर भ्रमण करते हुए ये ३० वर्ष की अवस्था में हरिद्वार पहुँचे और बहुत दिन तक हिमालय पर्वत पर घूमते रहे । जहाँ-जहाँ जो कोई विद्वान् इनको मिला, उससे ये विद्या ग्रहण करते गए। इन्होंने सं० १९१७ से २० तक स्वामी विरजानंदजी शास्त्री से मथुरापुरी में विद्याध्ययन किया और उन्हीं के उपदेश से लोक-सुधार का बीड़ा उठाया। सं. १९२०में इन्होंने लोगों से शास्त्रार्थ करना प्रारंभ किया। आपने शैव, वैष्णव, वल्लभीय, जैन, रामानंदी आदि मतों का खंदन और इन मतों के बहुत से पंडितों को परास्त करके सं० १२३ तक निम्न बातों को अशुद्ध ठहराया--भूर्तिपूजा, वाममार्ग, वैष्णव-मत, घोलीमार्ग, बीजमार्ग, अवतार, कंठी, तिलक, छाप, पुराण, गंगा आदि तीर्थ स्थानों की पवित्रता और नाम स्मरण तथा व्रत प्रादि । इसके पीछे १९२३ में हरिद्वारवाले कुंभ मेले के अवसर पर