पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१३३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१०६४
मिश्रबंधु-विनोद
पद
कमल मुख खोलौ श्राजु पियारे ।

बिकसित कमल कुमोदिनि मुकुलित अलिगन मत्त गुजारे; प्राची दिसि रबि थार अारती लिए उनी निवछारे । ललितकिशोरी सुनि यह बानी कुरकट बिसद पुकारे । रजनी राज बिदा माँगै बलि निरखौ पलक उघारे ॥५॥ केकी कोर कोकिला कोयल सामुहि करें जुहार ; परसन हानि कंज हित बोलें भगी जैजैकार । में दो रंध्र बेगि प्राची दिसि इति अब कहत पुकार ; ललितकिशोरी निरख्यो चाहत रबि नव कुंज बिहार ॥६॥ लाभ कहा कंचन तन पाए। बचननि मृदुल कमलदललोचन दुखमोचन हरि हरखि न ध्याए। तन मन धन अरपन नहिं कीनो प्रान प्रानपति गुननि न गाए योबन धन कलधौत धाम सब मिथ्या सिगरी आयु गँवाए। गुरजन गरन बिमुख रंग राने डोलत सुख संपति बिसराए ; ललितकिशोरी मिटै ताप नहिं बिन दृढ़ चिंतामनि उर लाए ॥७॥ प्रिया मुख राजत कुटिली अलकैं। मानहुँ चिबुक कुंड रस चाखन द्वै नागिनि अति उमगी थल। बेनी छुटि परी एड़ी लौं बिथुरि ल₹ घुधुरारी हलकै; यह अरबिंद सुधारस कारन भँवर वृंद जुरि मानहुँ ललकैं। चंदन भाल कुटिल भ्रमोरी ता पर यक उपमा है झलक गै चढ़ि अरध चंद तट अहिनी अमी लूटिबे मन करि चलकैं। पुहुप सचित उरमान विराजत चरनकमल परसत ढलढलकै ; मनहुँ तरंग उठत पुनि ठिठुकत रूप सरोवर माहि बिमलकैं। ललित माधुरी बदनसरोजहि राम करत पिय श्रमकन झलक ; मुंग हगनि पिय छवि मकरंदहि घुटत मुदित परत नहिँ पलकें ।। ८ ॥