पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१२६

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परिवर्तन-प्रकरण १०५७ एक वृधत् ग्रंथ बनाया। ये महाशय रामानुज संप्रदाय के महंत थे। इस संप्रदाय के महंत गोविंदराम श्रमदास के द्वारा में हुप । उनके शिष्य संतराम, उनके कृपाराम, उनके रामचरया, उनके रामजन, उनके फाहर और उनके रीराम हुए । रघुनाथदाम के गुरु देवादासजी इन्ही महारमा हरीरामजो के शिष्य थे। इन्होंने प्रकार होने के प्रति रिक्त अपने कुल गोत्र आदि का कुछ व्योरा नहीं लिखा है। ये सय मारमा थयोध्या में पड़े महंत थे। अयोध्या में रामघाट के रास्ते पर रामनिवास-नामक एक स्थान है। उसी पर ये लोग रहते थे और उसी स्थान पर इस मारमा ने यह मंध यनाना प्रारंभ किया। इन्होंने भाषा का जपए और अपने अंथ का संवत् इस प्रकार कहा है- संस्कृत प्राकृत कारसी, विविध देस के बैन । भाषा ताको फहरा रुचि, तथा फोन्ह मैं ऐन । संपत् मुनि पसु निगम शत, रुद्र थधिक मधु मास: शुल पर कवि नौमि दिन, कीन्ही या प्रकास । विनामसागर रायन थठपंजी आकार में छपा हुमा ६.३ पृष्ठों का एक या ग्रंय है। इसमें तीन प्रधान वंश है, अर्थात् पृष्ठ २८६ तक इतिहास, ३७४ तफ कृष्णायन और ६०८ तक रामायण । इसके पीछे पट ६१३ तक प्रश्नावली है। प्रथम बंड में मंगनाधरण के यतिरिस नारद, कृष्णदत्त, वाल्मीकि, गज, गणिका, यवन, अजामिन, यमदून, यधिक फर्शन, यमपुरी, फर्मविपाक, सुतां, गौतमी नुक्तां, मुद्गल, बीरभद्र, हरिश्चंद्र, सुधन्या, शियि, देवदत्त, सुदर्शन, यहना, मोरध्वज, ध्रुव, प्रहाय, नृसिंह, मा, अयोध्या, स्वायंभुव मनु, मप्त. द्वीप नपखस, गंगा-टपति, एकादशी जमी, युधिष्टिर-या, जानुल्य नुलाधार, मफी दत्तात्रेय, पितापुर, शयनजीन. मामंग, गरीर, दाम, संतनाग, काय नवधा भनि पोर पटशाख का यन। द्वितीय में कृष्ण की उत्पत्ति मे लेफर रुक्मिणी-विवाद प्रौर प्रयुम्न-