पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१२५

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१०५६ मिश्रबंधु-विनोद पूरन गंभीर धीर बहु बाहिनी को पति, धारत रतन महा राखत प्रमान है। लखि दुजराज करै हरष अपार मन, पानिप बिपुल अति दानी छमावान है। सुकवि गुलाब सरनागत अभयकारी, हरि उरधारी उपकारी हू महान है; बलाबंध शैलपति साह कवि कौल भानु, रामसिंह भूतलेंद्र सागर समान है॥१॥ मृदुता ललाई माँहि पल्लव कतल करें, ___ सुचिसुभतानें करे कमल निकाम हैं; लाली ने लुटाय दियो लालन प्रबालन को, सुखमानै सोखे थल कमल तमाम हैं। सुकवि गुलाब तो सी तुही है तिलोक माँह, सुमिरत तोहि घनश्याम पाठौ जाम हैं। कीरति किसोरी तेरी समता करै को श्रान, चरन कमल तेरे कमला के धाम हैं ॥२॥ छैहैं बकमंडली उमहि नभ मंडल मैं, जूगुनू चमक ब्रजनारिन जरैहैं री; दादुर मयूर झीने झींगुर मचैहैं सोर, दौरि-दौरि दामिनी दिसान दुख दैहै री। सुकवि गुलाब हैहैं किरचै करेजन की, चौंकि-चौंकि चोपन सों चातक चिचैहे री; हंसिनि लै हंस उड़ि जै हैं रितु पावस मैं, ऐहैं घनश्याम घनश्याम जो न ऐहैं री ॥३॥ (१८१८) बाबा रघुनाथदास रामसनेही इन महाशय ने संवत् ११११ विक्रमीय में विश्रामसागर-नामक