पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/११७

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१०४८ • मिश्रबंधु-विनोद ( १८०८) शंभुनाथ मिश्र ये महाशय कान्यकुब्ज ब्राह्मण खजुरगाँव के राना यदुनाथसिंह के यहाँ थे, और उन्हीं को आज्ञानुसार इन्होंने शिवपुराण के चतुर्थ खंड का भाषानुवाद संवत् १६०१ में विविध छंदों में किया । शिवसिंह- सरोज में इनका एक ग्रंथ बैसवंशावली का बनाना लिखा है। यह हमने नहीं देखा । शिवपुराण की भाषा बहुत उत्तम व मधुर है, जिसमें व्रजभापा व बैसवाड़ी मिश्रित हैं । यह ग्रंथ बहुत ही ललित और विविध छंदों में शिवकथा-रसिकों व काव्य-प्रेमियों के पढ़ने- योग्य है । हम इस ग्रंथ को कथा-विषयक ग्रंथों में बहुत ही बढ़िया समझते हैं । इस ग्रंथ में १००० अनुष्टुप् छंदों का श्राकार है। हम इन महाशय की गणना कवि छन की श्रेणी में करते हैं । उदाहरण के लिये कुछ छंद यहाँ उद्धृत किए जाते हैं- इंद्रवज्रा. द्वैगो तुरंतै सोइ बाल नीलो ; जाके लखे लागत चंद फीको । अनूप जाके सब अंग सोहै ; बिलोकि के रूप अनंग मोहै। ऐसे महा सुंदर नैन राजै ; जाके लखे खंजन कंज लाजै । निकासि कै सार मनौ ससी को ; रच्यो विधातै निज हाथ जी को। हरिगीती शुभ श्रवन नैन कपोल कुंतल भृकुटि बर नासा बनी; अति अरुन अधर बिसाल चिबुक रसालफल सम छवि धनी। कर चरन नवल सरोज तहँ नख जोति उड़गन राजहीं; जनु पदुम बैर बिचारि उर करि सरन तिनकी भ्राजहीं । नाम-(१८०८) दलपतिराय । कविताकाल-१९००-१६६० तक । दलपतिराय डाझा भाई सी० आई० ई० काठियावाड़ के देशां- तर्गत झालावाड़ प्रांत में षढवाण-शहर में दलपतिरायजी संवत्