पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/११४

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परिवर्तन-प्रकरण १०४५ देव प्रतिवादी के स्वरूप में उसमें पधारे । महाराजा जयसिंह का स्वर्गवास सं० १११ में हुआ। __ महाराजा विश्वनाथसिंह जू देव (नंबर १६७४) का जन्म संवत् १८५६ में हुथा था और अपने पिता के स्वर्गवास होनेपर श्राप सं० १८९१ में गद्दी पर बैठे । आपने संवत् १९९१ तक राज्य किया। आप प्रसिद्ध राधावल्लभीय प्रियदास के शिष्य थे। इन महाराज के समय में उत्कोच की चान फैली और कई कारणों से इनके पुत्र रघुराजसिंह से इनका वैमनस्य हो गया । मगहों से इन्होंने कई बड़े सरदारों को देशनिकाले का दंद दिया। अंत को संवत् १८६९ में श्रापने अपने पिता की भाँति राज्य-प्रबंध अपने पुत्र रघुराजसिंह को दे दिया, जो बड़ी-बड़ी बातों में इनकी सम्मति ले लेते रहे । रघुराजसिह ने देशनिर्वासित सरदारों को लौटने की प्राज्ञा दी और क्षत्रियों में कन्यावध की प्रथा हटाई । आपका विवाह उदयपूर के महाराणा सरदारसिंह की पुत्री से हुआ। आपके शासन से कर दंड और सती की प्रधाएँ उठ गई। नयर (१८७४) के नीचे लिखे हुए ग्रंथों के अतिरिक्त महाराजा विश्व- मासिंह ने परमतत्व, संगीतरघुनंदन, गीतरघुनंदन, तावमस्य सिद्धांत भाषा, ध्यानमंजरी और विश्वनाथप्रकाश-नामक अन्य ग्रंथ भी रचे । आपने निम्न लिखित ग्रंथ संस्कृत भाषा में भी बनाए-राधावल्लभ. भाप्य, सर्वसिद्धांत, आनंद-रघुनंदन (दूसरा), दीक्षानिर्णय, भुक्ति- मुक्तिसदानंदसंदोह, रामचंद्राहिक सतिलक, रामपरत्व, धनुर्विधा और संगीतरघुनंदन (दूसरा), मापा धानंदरघुनंदन बनारस में छप चुका है। इन महाराज के ग्रंथ अप्रकाशित बहुत है । आपका विशाल पांदिस्य अनेकानेक उत्कृष्ट हिंदी और संस्कृत-ग्रंथों से प्रकट है, और इतने अधिक ग्रंथों की रचना से श्रापका भारी साहित्य-प्रेम एवं श्रमशीलता प्रत्यक्ष प्रमाणित होती है। श्राप बढ़े दानी थे और