पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१११

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१०४२ मिश्रबंधु-विनोद लागै कलंक सेवक सों इन्हैं फोरि हौं सौति सुभाव लै जागी; हाय हमारी जरै अँखियाँ बिष बान है मोहन के उर लागीं ॥३॥ जहाँ जोम कै भनीन कीन कठिन कनीन कन, लोहे मैं बिलीन जिन्हें घूमत बिमान ; जहाँ धोपन धमकि घाव बोलस बमकि नहीं, लोहू की लमकि लेन लागी तहरान । जहाँ रुंडन पै रुंडमुंड मुंडन के झुंड करें, कोटिन बितुंड विध्य बंधु की समान ; वहाँ सेवक दिसान भीम रुद्र के समान, हरिशंकर सुजान झुकि भारी किरवान ॥ ४ ॥ ( १८०६) प्रतापकुँवरि बाई। ये जायण गाँव परगना जोधपुर के भाटी ठाकुर गोयंददासजी की पुत्री और माड़वार के महाराजा मानसिंहजी की रानी थीं। इनका विवाह संवत् १८08 में हुआ था। इन्होंने कई मंदिर बनवाए और ये बहुत दान-पुण्य किया करती थीं। ७० वर्ष की अवस्था में, संवत् १९४३ में, इनका स्वर्गवास हुआ । इन्होंने अपने पिता के यहाँ शिक्षा प्राप्त की थी और संवत् १६०० में विधवा हो जाने पर देवपूजन तथा काव्य की ओर अधिक ध्यान लगाया । इनकी कविता देवपक्ष की है, जो मनोहर है। इनके निम्न लिखित ग्रंथ हैं- ज्ञानसागर, ज्ञानप्रकाश, प्रतापपच्चीसी, प्रेमसागर, रामचंद्र नाममहिमा, रामगुणसागर, रघुवरस्नेहलीला, रामप्रेमसुखसागर, रामसुजसपच्चीसी, पत्रिका संवत् १९२३ चैत्रबदी ११ की, रघुनाथजी के कवित्त और भजनपदहरजस ! इनकी गणना मधुसूदनदास की श्रेणी में है । उदाहरणार्थ हम इनके कुछ छंद नीचे देते हैं- धरि ध्यान स्टौ रघुबीर सदा धनुधारि को ध्यानु हिए धरु रे; पर पीर में जाय कै बेगि परौ करते सुभ सुकृत को करु रे।