पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१०६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०३७
परिवर्तन-प्रकरण

इस उपनाम से काव्य करते थे। कहीं-कहीं इन्होंने अपना नाम गिरिधारी एवं गिरिधारन भी रक्खा है। यह हिंदी के अच्छे कवि थे। छोटे-बड़े सब मिलाकर इन्होंने चालीस ग्रंथ रचे हैं, जैसा कि हरिश्चंद्रजी ने भी लिखा है―"जिन श्री गिरिधरदास कवि रचे ग्रंथ चालीस।" इनके ग्रंथों में "जरासंधबध" प्रसिद्ध है। इन्होंने दशा- वतार, भारतीभूषण, बारहमास, पट्ऋतु एवं अन्य अनेक विषयों पर ग्रंथ निर्माण किए हैं। इनकी कविता सरस और अच्छी होती थी। इन्हें यमक का बहुत ज़्यादा शौक़ था, जिससे कभी-कभी पद्माकरजी की भाँति अपने भाव तक बिगाड़ देने एवं भरती पदों के रखने में भी कोई संकोच न होता था। इनका समय संवत् १९०० के लगभग था। इनका देहांत २६ या २७ वर्ष की ही अवस्था में हो गया। ये काशी के प्रतिष्ठित रईसों में से थे। हम इन्हें तोप की श्रेणी का कवि मानते हैं।

उदाहरण―

आनन की उपमा जो आनन को चाहे तऊ,
आन न मिलैगी चतुरानन विचारे को;
कुसुमकमान के कमान को गुमान गयो,
करि अनुमान भौंह रूप अति प्यारे को।
गिरिधरदास दोऊ देखि नैन बारिजात,
बारिजात बारिजात मान सर वारे को;
राधिका को रूप देखि रति को लजास रूप,
जातरूप जातरूप जासरूप वारे को॥१॥
लाल गुलाल समेत अरी जब सों यह अंदर ओर उठी है;
देखत हैं तब सों तितही लखि चंद चकोर की चाह झुठी है।
डारत ही गिरिधारन दीठि अवीरन के कन साथ लुठी है;
मोहन के मनमोहन को भटू मोहन मूठि-सी तेरी मुठी है॥२॥