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परिवर्तन-प्रकरण

झलक कपोलन पै बाजू जुही जाह के।
बेनी बीच माधुरी एगुही है बार-बार तापै,
रंग पहिराए हैं बसन अंग लाह के;
बीन-बीन कुसुम-कलीन के नवीन सखी,
भूखन रचे हैं ब्रजभूषन की चाह के॥३॥

(१७९६) रसरंग

ये महाशय लखनऊ के रहनेवाले थे। इनका समय संवत् १९०० के लगभग था। इनकी कविता सरस और मनोहर है। इनका कोई ग्रंथ हमने नहीं देखा है, परंतु स्फुट छंद देखने में आए हैं। इनकी रचना-श्रेणी साधारण कवियों में है। इन्होंने ब्रजभाषा में कविता की है।

सुखमा के सिंधु को सिंगार के समुंदर ते,
मथि के सरूप सुधा सुखसों निकारे हैं;
करि उपचारे तासों स्वच्छता उतारे तामैं,
सौरभ सोहाग श्री सो हास-रस डारे हैं।
कबि रसरंग ताको सत जो निसारे,
तासों राधिका बदन बेस बिधि ने सँवारे हैं;
बदन सँवारि विधि धोयो हाथ जम्यो रंग,
तासों भयो चंद, करझारे भए तारे हैं।

नाम―(१७९७) व्रजनाथ बारहट चारण, जयपुर।

रचना―स्फुट।

कविताकाल―१९००। मृत्यु―१९३४।

विवरण―ये जयपुर-दरबार के कवि महाराज रामसिंह के समय में थे। कविता इनकी साधारण श्रेणी की है। नीचे लिखा कवित्त इन्होंने महाराज सख़तसिंह जोधपुर के मरने पर बनाया था।