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मिश्रबंधु-विनोद

इनका तृतीय ग्रंथ है और उसी में उपर्युक्त बातों का वर्णन है। यह रंगतरंग संवत् १८९९ में सबसे पीछे बना था।

नवीन कवि ने इस ग्रंथ में रसों का वर्णन किया है। इसमें अनु- प्रासों का बाहुल्य है। इस कवि की कविता-शैली पद्माकर से बहुत कुछ मिलती है, और उत्तमता में भी उसी कवि के समान है। इस कवि की रचना बहुत ही प्रशंसनीय है। हम इन्हें पद्माकर की श्रेणी में रखते हैं। उदाहरणार्थ इनके कुछ छंद नीचे लिखे जाते हैं―

राजैं गजराज ऐसे दारुन दराज दुति,
जिनकी गराज परैं बैरी के तहलके;
सुंडादंड मंडित जंजीर झकझोरैं गुन,
जीरन लौं तोरैं जे झरैया मद जल के।
श्रीमनि नरिंद मालवेंद्र देव इंद्रसिंह,
तेरी पौंरि पेखिए हजारन के हलके;
ओज के सिँगार बड़ी मौज के सिँगार,
निज फौज के सिँगार जैतवार पर-दल के॥१॥
सूरज के रथ के से पथ के चलैया चारु,
न थके थिराहिं थान चौकरी भरत हैं;
फाँदत अलंगैं जब बाँधत छलंगैं,
जिन जीनन ते जाहिर जवाहिर झरत हैं।
मालवेंद्र भूप की सवारी के अनूप रूप,
गौन मैं दपेटि पौनहू को पकरस हैं;
करि-करि बाजी जिन्हैं लाजै चपलाजी देखि,
तेरे तेज बाजी पर-बाजी-सी करत हैं॥२॥
चपक के चौसर चमेलिन की चंपकली,
गजरे गुलाबन के गलते उमाह के;
कदम तरौना तरे किंजलक झूमका की,