पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद ३.pdf/१००

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१०३३ परिवर्सन-प्रकरण प्रचलित हैं, सो हमने उत्कृष्ट उदाहरण हूँढ़ने का श्रम भी नहीं किया। इनकी भापा साधारण बोल-चाल को लिए हुए बड़ी जोरदार है। हम इनको पद्माकर कवि की श्रेणी में रखते हैं । संवत् १९३० के लगभग तक ये विद्यमान थे। इनका कविताकाल संवत् १६०० से १६३० तक समझना चाहिए । इनका हाल इनके मिलनेवालों ने सरायमीरा में हमसे कहा था । उदाहरण- किया पिय किन सौतिन घर वास ; बिकल उन विन जिय बारह मास । गरज आली असाढ़ आया; घटा ना ग़म दुख दिखलाया । अवर हो बर बिदेस छाया ; कहीं बरसा कर्हि सरसाया ॥१॥ जोबन पर जिसके शम्सोक्कमर वारी है; हर गुल्शन में उस गुल की गुलजारी है। जंजीर जुल्फ जाना ने लटकाली है; काली है फ्रिदा जिस पर नागिन काली है। अबरू कमान कुदरत ने परका ली है। वह आँख, भाँख पाहू ने झपका ली है। बदन ससि मदनभरी प्यारी ; अदा की थॉफी ब्रजनारी । सीस धर गोरस की गगरी रूप रस जोवन की अगरी। वजा छमछम पायल पगरी; गई ग्वालिनि गोकुल-नगरी ॥२॥ (१७९५) नवीन ये महाशय नाभा--रेश महाराजा देवेंद्रसिंहजी के यहाँ थे। इन्होंने अपने को ब्रजवासी कहा है, परंतु कुल-कुटुंव का कुछ भी हाल नहीं लिखा। इन्होंने नामा-नरेश के यहाँ गज, ग्राम एवं रुपया-पैसा सभी कुछ पाया । इनका वहाँ पूरा सम्मान हुआ । इन्होंने महाराजा साहब की आज्ञा से भाषा-साहित्य के सुधासर, सरसरस, नेहनिदान [खोज १६०५ ] और रंगतरंग-नामक चार ग्रंथ बनाए । हमारे पास