पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५७३

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५६ मिपन्थुपिना। [सं० १८८० ६ मज पालन में अनियेविनु काज वैर या वलया। ४ गुन गन मझ मनी, | गुः कान घशी धरना प्रतिनं ५ तुम मात्र दिनु सिगरी, कग्नि शेपर दे सिमापन या । मैल में गैरपद गार भरी सरंग ! चीथिका चन्द्र परयो द्रग्रिता ॥ १ ॥ घारी धैरी पैसवारी नवल चिसैासवे, में भारी धाताने चित मुरार मारतो । यसन बभूवन विराजित विमल घर, मन मरोरनि त तन रवीं ।। प्यारे पतिताह फै गरम अनुराग अँगा, चाय भरी घायल चपत दृग जारत । पाम अयन सा घर की कद्धा सुर, पार; चम्पक शता र चपला सी कित चैा ।।३।। उपचा उदार से यह भी विदित है कि पिजी पदमधी का अच्छा व्यवहार कर सकते थे। भाf उदंडता, रायल्य पर गैरब इनकी कविता के प्रधान गुण ६ । नापासाहित्य में वैताल, दाल, भूपण, हरिकेशादि कुछ ही फबिये । छाइवर किसी काप में पेसी मंगोत्पादक शचि नहीं पाई जाती ।। उदै मानु पच्छिम तच्छ दिन पन्द्र प्रकासे । उलट गैग ३६ चहे काम रति प्रति चिनारी ॥