पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/५७२

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चन्द्रशेखर ] राजेंद्र प्रज्ञा तजे गौरि प्रधग अचल धुव आसन चलै । असल पनि बम देय मेरा मन्दर गिरि ले । सुरतरु सुत्राय लार्मस भरे भीर संक सब परिहरी । | मुख वचन धीर धुम्मोर फी बेल न यह तय हो । शैखरजी में चचध विपर्यों के यथाचित घन फरने की कि बहुत बढ़ी चढ़ी थी। अलाउद्दीन की मुर्गा, मेन र हुम्र का वादानुभाद, शाही सैना की राथम्भोर पर आमा हेतु तैयारी, और इम्मीरदैच को जार पर रोक, इन चनों में कधि की पत्ता फन्ट हैरती है। शाही सैना के भगाने में ही कैसा आनद किया है। आगे मरादे पीरजादै | अमीरजादे, भाग निजादै प्रान मरत मचाय के। भाजि गई वाशी एय पप न सम्हाई' परे । गैलन पै गैरील सूर सहमि सकीय कै । भाग्यो सुलतान जान अन्नद ने जान वेग यति नपुंई ६ विराज विल्लीय है। जैसे ली जंगल में पिम की प्रानि लें। | भाग मृग मदिरा बराह मिलाय ॐ ॥ हाथियै पी भी वर्णन इन्होंने अच्छा किया है और केट उड़ाने में शब्द मी रा मानै आसमान वफ रज़ भरी ।। | ये मशिय मुख्य वर्णन पर पाय धी शांचे पहुंचा देते हैं भार व्यर्थ घने से कथा फी नहीं चढ़ाते । क क थे कुछ पिंपद्म प्रच्छन्न रीति पर घन कर जाते हैं और उनका पूर्ग ताराय