पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/४४४

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कीनन्दन] उत्तरकृत प्रक्ररण । ८५७ ऋगारनरेन सद्यत् १८४१ में बनाया गया । इसमें नायक तथा नायिकाभेद्, मायादव, गुया, अनुप्रास और अर्थालंकार का वर्णन हे । यद् पन्थ अच्छा और इसकी भाषा ललित है। अलकार विभाग प्राय: वोठा में कहा गया है । घेवकीनन्दन को पहिय बहुत सराहनीय हैं। इनकी कविता में चार जगए कूटमी पाये जाते हैं। | अदभूतभूप सघ १८५७ में समाप्त हुआ। इसमें कचि पद राजचश का पूरा चयन किया गया हे । तदनन्तर अर्थालंकार पर शदाङकार की योग हैं। मुख्य भाग अवधूतभूपय एव 2 गार- चरित्र का प्राय: एक यी है, अवधूतमू में केवल पादिका कुछ घर्छन् नया हे । वस्तुत इन दाने ग्रन्थों की एक हो समझना चाहिए। दैफीनयन की कता सराहनीय है। उसमें ऊध भाव बटुला- यत से आये हैं घर कहाँ कहाँ कुछ क्लिष्टता भी पाई जाती है। ध्या; का चमत्कार; इस कवि ने अच्छा दिखाया है और पाठी की बिगरशक्ति भी पैनी करने का मसाला ट्रों में रक्षा है। इनके इम पद्माकर की कक्षा में उसने है। थैली म रायटी में हेरत पिया की घाट | आये न विदारी भई निपट धीर हैं। देवकीनंदन कई स्याम घटा पिटिआई जान गति प्रलं की ईरान वटु धरि ६ ॥ सैज पै सदा तिचे झी मूरति वनाङ पूड़ी शीन दर तनहू की क ततधीर है। पाचन में सामरे सुलाखन में अनेट ताम्रन में लाने की लिगी तलवीर में ।।