पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/४४१

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विन्ने । [१० १६॥ जद्रि निधि प्यास लगन गापा । श्री अनन्त मुन्नवर सुनाषा ॥ जय रघुपति पदयंश पुगी । मधगई इन्धन के समीता । गुरु मंजुर सुन्दर सय गती । सरित कर सर गुमग नग्न पत्रिी में गत फपतर, तर सय घेरा । दाइन या तम जन चित चारा ॥ विधि पछुप ए जर घन घाश। जग प्रसिद्ध केरि बजार ।। चिन्तामणि पारस मधेनु । अधिक वाटि गुण अभिमत देनू । जन मन मानस रसिक मराला । मुमिरतभज्ञतथिपति धिसला ॥१॥ नरवि काल जित पि अपारा । सिंदिर आय यारि गदा मारा। महा बॅग युत आवै होई ! अष्टधातु मय जाय न जाई ।। प्रयुत भार भरि भार प्रमाना । देविय जमपति दंड समाना ।। देसि ताहि छ नि षु चंडार । कान्ही तुरत गदा ५ असा ॥२॥ जिम मुभ मास मंच सगुदाई । घरपई बार मदर झरि हाई ॥ तिमि चंद शायक जनु व्याला । हुने कोश तन ठच तेहि काला ॥ भये दिल मत पचनमारा ! लगे फन तय हृदय विसारा । यद् अत चालक चरारा । अब न चले फडु विनाम मे ।। में सब भात भय देहाड़ा | देहि बिधि उबर र विकराया। भनि जाहुँ जैा समर दियाई । ती प्रभु अन्न वाश धिकाई ॥ कहीं सकलजन कर उपहासा। भजे मस्त सुत चालक घासा ॥ पुन पापीस मेन फन्ट विचारा। कपट मूर। चिनु न उबारा ।। ३ । नाम (६७४) चैप्पायदाप्त बगल के । प्रन्ध–१ गैरिगुणगीत । रतना-काल-१८४०