पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/४०५

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रिक्षयधपिद् । [सं० १८३८ कर के दमें लिप्त जी ! विन्ध ने ५ पृष्ट का यह वा प्रत्थे घनाया है, जिसमें रस मैद, भाप भेद वीर नच्च शिख के पनि ए ६ । इनया पाय सानुप्रास र सुन्दर ६ संघह घशभापा मैं लिया गया है। हम इन्हें तत्र कार्य की श्रे में पते ६। चम्य चमेली फळी सुन के अलाठी सी फूलनि सेज सँवारी। कुंज कि देहरी धढ़ि रही मय जाप्रत श्यामाई गैप कुमारी ।। यो ज्यों गई रजनी सरसाए ६ चै न आवे इतै गिरिधारी ! ालत में दि ६ पट घूघट फानन फानन सुन्दर पारी ॥ मिहि ते गनिका गनि साधने पावन फाटे गई टुरि धीमहि । धाभहि धील सुदामई में पडश प्रभु पास माद्दाइ के ग्रामहि ॥ बामदिं गैतम य गति पाय भई शिनधि सपून काम। शामहि माग्न गये दिन थोवि अरे मन मूद भी इरि नामहि ॥ ठाकुर कुशलसिह के स्वर्गवासी होने के विपय में छाकुर सर्व तसिह जी ने राम कवि एत निन्न उदिश भेजा है:- घा फागुन सुकुल कई दसमी थे। सनिबार। इन्दु राम बसु चन्द की सम्पत है सुम हार ॥ सयत है सुभ सार जाम दिन यासर शीतै । अमर नदी के तीर समर फीन्हें मन चैते । राम फदई असि बात आज सुर वृन्दहि पाया। कुल सिंह सिरमेर टयहि वैकुठ सिधाया। | (६४) मनराम मिश्र। ये महाशय कन्नौज किंवासी इच्छामि मिन्न के पुत्र कान्य