पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/४०३

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म। मिश्रबिना; । [१० १८८ सर जर चिंरचन यल मारे। पीन पीधर मर्दैन दारे ।। प्रति सुषुमार धन माने। ज्ञान के क्षेत्र में भीजे ॥ केश द्वीपदी के दि फर्पा । फग्नद्दार मम भुज्ञ अनि धर्पण ॥ तुम सब छपन हे दि छग में । तप न रह्यो पनि वन में ॥ घर्म पालन करि रग में । अत्र म प म भट गण में । काग गलि पि मम भनिन । नुम पिया परन पद्रिोनिन ।14।। भीम दुर्योधन को गद्दा-युद्ध । गप त अति फात बिवम उभय दें। धीर। सहि परसपर गदा गरुई मनन नेऊ न पीर । गर्जि गर्न अाई गति ग६ि उमय वीर उदंद। फरत चालन देरडन चपल अतिशय चंद्र सव्य है पसभ्य फिर सप्प से अपरान्य ! फिरत घात गदा गई सुभट भइ मरि' भब्य ! शब्द से गरि दियो अन्द स्तन्य भैनडि नैफ। दृटि टूटि अचूक बद्दित गर्दै जय की टेक ! एपघाज के वचन सुन द्रोश सुत अनवार । यो निज मत चैह्य सष कईं परत ज्ञानि सचाय ॥ कारनौतर योग में मति बुद्धि पलटति तात। |६ विचित्र मनुष्य के चित फ नई इपत ॥ भिपन्न भैया देत जीवन हेत समुझि निदान ! काल घने यह मरत तो सच कहत तेहि अग्यान। पुरुषविद प्रष्ट भूपति रिये। जिस पर्म । गया फाज़ नसाय व सत्र कइते फुस्सित्र कर्म ॥