पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३९६

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- गोकुलनन्य] उत्तराजंकृत प्रकरण। ८१६ यई चंसिन चै करि इमि चैन । घटो परम रथ । नल ऐन ॥ मकर, केतु थे । यिसाल । मुत्र पसार जनु धाबत फाल । सपल सुरंग इम उसे अमान । मनै गगन माँ बद्दल उड़ान । बिद्युत सरिस चाप अति घोर । फिरत ६ कर में दुइ ! फाट प्रद्युम्न मैन है तूर्ग 1 चले शाश्व चै अमरत्व पूर्ण ॥१॥ हॉई सुवेच्छा की सुपाशा चोख कीवकाम | | ज्ञाय सिद्दिन पास जंतुक तथा कन्ष्ट्रय गैन । गों या स नाइन याहू भाँत समित मैंन।। | ए आई झहीं है तुम कौन हैं छबि गेन || चंद्र बनी कहहु इमसे सत्य से अभिराम ।। भरी परमा कांति सै* सुकुमारता की धाम || कमल नगने अंग ते सत्र बसीकर के यंत्र । चार हालिने सुधा से शस्त्र अचन मेहुब मंत्र । नहीं तुम सी लखो भूपर भरी सुम्ममा सम। यि यज्ञ किन्नरी के श्री सर्च अभिराम ॥ चति से प्रति भरो तुम लयत बदन अनूप । फमे नई स्मश फर्का मदा मननथ भूप । दार यैाग्य सुसह्य उन्नत कनक कुम्भ समान ।। फरत उरलिज रबरे अति व्ययित कठिन महीन । सप्तति निथडी भे1सी दच धरे उरसिह भार ! | दर ३tम भर नाभी कि तनु सुमार। सरित पुटिन समान जंया सयत पनि अलेपम् । मन रंग अबैध कारन मंग ते छबि म ।