पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/३८५

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४८ नभन्नन्धुविनाद। [१८२५ लिंदजी ने नई वृन्दाबनपासीं माना है और अनुमान हैं प ठीक भी ज्ञान पढ़ता है, क्योंकि चमरनाथ के समदाय घालै वही रहते ६ भर में प्राचार्यजी के एक संशधर के शिष्य थे। यह भी अनुमान से जान पड़ता है कि ये महाशय भाथुर माझी थे। अज्ञविकास एक घड़ा ईन्छ है! यह अपनी में कुछ बड़े र में गद्ध ५४६ पृष्ठों में छुपा हैं। इसके लिए के विय में सज- घासीदास जी ने यह लिखा है कि- सिगरे दहा आठ सी आर नशासी अधैिं । हैं इतने सारठा अबिलास के माई ।। दश सहस्रं घट से अधिक चौपाई विचार । छन्द एक शत पट अधिक मधुर मनाइर घा६ ।। सब चुप छन्द करि दश सहने परिमान । पद्धत हीन न पाचहीं लिविया जान सुजन ।। इन सूरसाएर ६ बधार पर यह अन्य बनाया और शद्द साफ़ कह दिया है कि मैं फाट्यानन्द के अर्थ इसे न बनाकर घले भजनानन्द के लिए बनाता है । अपनी रचना वा संचव भी इन्होंने लिखा है। सयय् शुभ पुर। शत नै । ताप' में नजर आनौ ॥ शाय सुमाल क्ष उजियार । सिाथ पछी सुभा। ससि सारी ।। श्री वसन्त बन्सन नी । सकल चिथ्य मन आनंद दामी । मन में करि आनट्स, इटासा | प्रजवलास के फरक प्रकासा ।