पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२४६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६६३ मिशन्धुपिना; । [५० १७८७ दाद्दर । मृग मदगन्ध मिलि चन्दन सुगन्ध राष्ट्र केसर कपूर भूरि पूत | अनन्त ६ । र म गलत गुळाचन चरित भर भइ महबूब तर ॐ दरम्भन्न ६ ।। रच्या परपंच सरपंचपंचस जू नै फरठ कमान पनि बिरई इनन्त ६ । छानि दितिं ली ऋतु इञ्जिन समझ मां नई फिरत भई जिसिर वसन्त ६॥ (६५६)रसिकाविहारी (वनी उनीं जी)। ये मापा भदाजे नागरीदा फी उपपनी पी और इनके साथ धो वृन्दावन में घास करती थीं । इनकी चिंता सरस धार भक्तिमच से पूर्ण है । वह झज्ञ भाषा में राजपूतान भिश्चत भाषा में है। इनकी गाना साधा श्री में की जाती है। इन पद नागर समुयम के अंत में सग्रहीत हैं। किसी किसी ने | सिफघिद्वारा नाम होने से इन्ध भ्रम से पुरुप माना हैं । इनका कविता-कल सवत् १६८$ समझना चाहिए क्योंकि ये भागरीदासर ॐ सरच थी। उदाइन,ग्छ । फागुरिया धुमड़ रहारे प्याछ । | कुछ भूमि से लाल हुइ हु लाई तमाए । वृद्धि शुललि की छाल धुंधारे में झलके या भाछ । सावी लाल अम हाल बिद्दार रसिक बिहारी लाल ॥ फुदन ६ सिर खेरा फोन गर्म नै छैन । भोंच रही में चलत देउ हैं गति मुल्य सुदैछ ।