पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/२२४

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६४६ मित्रन्युपिनाद । [१० ११९, सं० १८०४ में ये दिल्ली के बादशाही दरबार में थे । इस समय अकस्मात् इनके पिता का स्वर्गवास हुआ। अद्दमद शरद्द नै वैसा शु० ५ ॐा इन्हें पगढ़ को रजा बनाया । थे अपनी राजधानी का जाया चाहते थे कि इन्हें रबर मिली कि इनके भाई द्वार- सिंह ने राज्य पर कशा कर लिया है, अतः ये धादशाही दल सहायक लेकर प्वागढ़ गये, परन्तु अपने भाई से न जोन सके । उधर बहादुरसिंह ने भाइराजा जीभपूर से मे कर लिया था, सा इन्हें दुबारा मदद देने से बादशाह ने इन्कार कर दिया । ये यहाँ से मज्ञ का चले गये और वहीं रद्द कर इन्होंने मरइट से संधि फरके वहादुरसिंह । परास्त क्रिया यार अपनी राज्ञ पाया । उवयु कयराऊ झगड़ी से इनके चित्र में राज्य से इतनी घृपा द्दी गई कि ये वगम् राज्य में लेकर स० १८१४ में अश्विन शु. ई० के दिन अपने पुत्र फा राज्य पर प्रतिष्ठित करके आप भ पट, घर द्वार छह श्री धृन्दावन जाकर भगवद्भ में दिमझ हुए, जैसा कि इनकी कविता से भी ज्ञान पड़ता है। जहां कल तई सुख नहों फलइ सुन्नने के! पुल। सन्नई कद्द या राज में राइ फवाह की मूल । में निय या मन मूड हैं इरत रहत हैं। इपि । वृन्दावन की मार हैं नत इहूं फिर जाय । टेत न सुन्न र भगन के सवल सुसने की सार। कहा भया नृप भए दोबत जग घेगार ६ और भन देखी ने शुष है इन्धा भैन । इरि है। सुघरीं चापि सही दिगई क्यों न ॥