पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/१६०

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प्रिन्धवि। [सं० १९६० ज्ञा कर में न्याउ प्रज्ञा भी देत दुपारी । । घर घर में चेयर दुरित में सत्र नर नारी । अय जै? मान गजपति । सोल मैप कित गया। बैताल में विषम सुनैर यट्स फलजुग परगट भयो । ५ ॥ भई साल पर नई मई धान पचानें। मई सिलाई नाय मई चिंता न माने # गई देय । ठेय मई धो गई बचांचे । गाई करे फाप्त मई के मर्दै ६ ।। पुनि मर्दै उन वा जानिए द्वय सुख साय दर्द के। वैतील ६ विनमें सुना ५ लच्छन हूँ मर्द के ॥ ६ ॥ चार चुप्प में हैं इन अंधियारी पाए । छत चुप ६ रहे मद में ध्यान दिए । अभिर चुप्प ६ ६ फार प ले आने । ल चुप हैं रहे सेज पर तिरिया पायें | ब्र पिपर पात इस अचन इ फाइ कधिं कुछ कुछ कहें। ६च्चाछ कहे चित्र में सुना चतुर चुप्प कैसे रहे । ५ ।। (५५०) रुप रसिक अनन्य सदाय के थे। इनका धपिता काळ जॉच से १७६० स० क झगमग जान पडा हैं। इनका रचा हुए 'या नग्न अस्पत सागर' नामक ६२ मॅग्नाले पृा का ५ दपने पूर * दैत्री हैं। इन कांपता पर ली थी। इर्दै साधारण श्रेष्ट में इग्नते हैं । इदादर !

  • श्रीमत मुरि ब्यासदेव स अमृत सागर, छरी ।

झागि भि६ १५ दिर महा अर्थ की ६ ॥