पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/१२३

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अवर अनन्य ] पूत प्रकरए । थे कि आपनै जाना पसन्द नहीं किया। इन के न्झि चार पन्र्थों का पता और चला हैः- (१} अगत्यप्रकाश, (३) मिचेकदीपिका, (३) देयशक्तिपचीसी, (४) ब्रह्मशान ।। कुछ ग्रन्धों में इन का समय मम के कुछ ही पीछे लिया है, परन्तु वद इन फी रचना एवं अन्य बातों से अशुद्ध जान पड़ता है। इम के अन्य ग्रन्थ नीचे लाने जाते हैं:-- गन्धं-- अनन्ययाग , २ राजयोग, ३ अनन्य की कविता, ४ देवशक्ति पचीसी (शक्तिपचीसी, अनन्यपचीसी ),५ प्रेम दीपिका, ६ उत्तमचरित्र (श्रीतुग भापा), ७ अनुभपतरंग, ८ ज्ञानवैध, ९ श्रीसरसमजायली, १० घामान, ११ पान- पचासा, १२ भघानस्लैब, १३ वैराग्यतरंग । छदातुर । जैी अन्दर सुमिरत सुरत pr६ । ती बाहेर फरमन छग नाई। जा मदिरा सा गति यह कहते वेद । मन गत साधा यद्द झन भेद । ज्ञा मत म सधै मन करम भेर । गीदि विर्य नई मुक्त होय ॥ अखि ढाल लिये अनि फेरि चट्टयौ । जनु पाप प्रलं कहूंकाल गयो। इमि राज को सच म झर्दै । रक्सी अरु राक्रस पुंड बड़े में पहिले तप तीरथ प्रत्त फेरे करि संगति साधुन की इरस ।' पुनि भक्ति घरे अचलारन की वर युक्ति तु यानि की परसै,५ पुन आपुन च विचार करे एरिपूरन ब्रह्म मनाकरसै ।' फन यद्द रीति अनन्यभने सरबस सकप स्वय' दर ।