पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद २.pdf/१०२

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मिथुविनाव। [५• ५०१॥ जयसिंह ने दधा जी का विश्वास दिला व विली और था, परन्तु चार राजु ने विदघासघात करके उन्हें बन्द कर लिया। पैसा देने पर रामसिंह ने अपने पिता का वचन स्थिर रखने के विचार से प्रयत्न करणे छिपे दिये शिया जी को दिल्ली से माग जाने दिया। कुलपति मिश्र का केवल एक अन्य 'सरस्य' देखने में आया है। यह स्पति बार, कार्तिकी एकादशी संवत् १७२७ वि० में मर था। इस पै। कुलपति मिश्र में संत के बहुत से शत प्रन्ध पढ़ कर बनाया, और इसकी फपिता भी प्रोढ़ है, अतः जान पड़ता है कि इन्ने इसे पचास वर्ष की अवस्था में बनाया होगा । सो अनुमान से इन के जन्म का संवत् १६७७ वि० समझ पड़ता है। इनके भरण-भाल का कुछ भी पता नहीं चला। ये मराज भूषण त्रिपाठी के समकालीन धै। इनके विषय में निश्चित बातें जिनो लिजा ग ६, ६ सय 'रसरहस्य' में इन्होंने स्वय' लिखी हूँ। कुलपति मिश्च संस्कृत में अच्छे पति थे। आप ने अपने अन्य में फायप्रकाश और साहित्यदर्पण में मीं पर विचार किया है। काव्य रीति पर चिन्तामपि के पीछे गैरपरि अन्य पदले पद्दल इन्हीं में बनाया। इनकी कविता से पूर्व पांडेय की झलक, दैव पड़ता है और उसके गैरचा देत फर इनकी सादित्य प्रीटता स्वीकार करनी पड़ती है । इनका प्रध अन्य कविये के झन्धे की अपैक्षा कुछ कठिन है। कुल यातै पर विचार करने में