पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/९९

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६॥ शब्दों के नए रूप (३) इतना ही नहीं, इन शब्दों के नृतर रूप देन; लेने में भी सुम कुछ भी हानि नहीं समझते ३ देंगुच्चा के प्रसिद्ध लेखक बंकि- चंद्र चटर्जी ने कहीं सौजन्य" के और “सौजन्यतः' शब्द व्यव- हृत किया था, जिस पर किसी संस्कृत महात्माजी ने उन पर घराक्रम किया । बंकिम दाबू में केनाल इतना कहकर रूगा मैट दिया कि मैं सी सी न्यन्वा खिन्नत हैं, जब आप कोई मंथ निमः त्रिंबा, हम उसमें श्राए जन्तु हर लिखिए । सर्वसाधारह इस शुद्ध रूप पर मोहित होकर चित् अथ ही का ग्रंथ पढे ।” पर वहाँ #थ वनाचे व वहाँ त दूसरे की कीर्ति बढ़ती देख हृदय में शुरू हुश्रा हे और विनर उनकी निदा किए कश्च रहा थ् ! बस, ऐसे महापुरुषों को परनिंदा से काम । प्रायः ऐसा ही हाल बँगल्हा-द-कुछ मुकुट मधुमृदनदक्ष के विषय में यक' श्रोर यकी' पर हुई र । ई। ग चमत्कारिक लेह पर यों ही व्यर्थ ३ अझमए करते आए हैं। उन्हें स्मरण रखना चाहिस ङि हिंदी के परम प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ कक्यिों तक में बेधड़क ऐसे-ऐसे शब्द लिने हैं, औ कि संस्कृत याङ्ग्रह से नितांत अशुद्ध उरते हैं, पर में महा जानते थे कि संस्कृत एक भया है और हिंदी दूसरी । संस्कृत ॐ अकांह पडित गोस्वामी हरिवंशहित में हिंदी-कवित' करने में सदा ही ध्यान रखा कि उनकी रचना में ऐसे शब्द न आने । पाचे कि जिनको ब्यवहार हिंदी में न होता हो । महात्मा सेना- पति ने *"कविताई" शब्द का प्रयोग किया है--सेनापति कविता की कविताई विलसति हैं। यह बंकिम की सान्यता के ही समान है। और की जाने दीजिए, श्रीस्वामी हरिदासजी

    • भर्तृहरि को अपनी कविता में भरथरी” कह भी नहीं