पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/९५

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रए में नियम-बद्ध होनी चाहिछ । ३ महाशअ ात की खाल निका- कालते हुए छोटी-छोटी बातों पर सुरक्षार हिंदी-लँखों की रचना में मनमानी अशुद्धियाँ निको द्धने द्धनें हैं । ऐसे महानुभाव ग्रह कास प्रायः बिज्ञछुल्ल भद्र अाते हैं कि संस्कृत और हिंदी ॐ अल- अञ्जय भाषाएँ हैं। हिंदु का दाँचा चाहे संस्कृत से भले ही बना हो, पर उसळी न्चाल-ढाई संस्कृत से विभिन्न रखते हैं । यदि उन चिल्लाने को संस्कृत का हेया अट्ट इ हैं, तो उन्हें हिंदी में अलग छोड़ उसी भाषा के लिखना-पढ़ना चाहिए । इसने इस विषय पर बहुत दिन तक भली भने पूछे दिन्डर करके निश्छ्य किया है कि हिंदी झे संस्कृत-व्याकरण के पेट में छालने से दाभ अति स्वल्प हो सकता है, पर हानि देख्दै प्रवद और असह्य होगी कि जिसका बार-पार नहीं । लाभ केवल इतना ही प्रतीत होता है कि हिंदी संस्कृत ही थी, अथर् ऊम संस्कार होअर वह दी झियस-बद्ध और स्थिर ही जाय किं मनमानी घर-ज्ञान की बात हटकर उसका कि नियमित रूप निश्चित हो जायेगा और लेखक की इच्छानुसार उसमें हेर-फेर न हो सकते । पर मरण रहे कि यह बात अन्य प्रकार से भी संपादित हो सकता है, क्योंकि किसी भी व्याकरण के निश्चित हो जाने पर उक्ल पड़ी भद सकती है। हिंदी एक जन-मुदाय की सरह भरा है और उसे दुर्गम इदं जटिन्ह बना देलें * एकमात्र परिणाम अही होगा। कि पाँच-सात वर्ष के उकट श्रम बिना किसी को अपनी मातृ- सरा का भी बच्च न हों ! ! यह तो स्पष्ट हुई है कि साधारण जन-समुदाय में दम विद्यानुरारा शून नहीं हो सकता, अतः आइत्या अपढ़ और झुपड़ एकं साधा छ पढ़े-लिखे झीग की । कोई और ही हों अथरी | सड़ रहे कि हमारे यहाँ साधावा “त

        • झर लेनेवा तक की संख्या में पीछे दस-ग्यारह से अधिक

ना है और यदि लिङ क सी जड़ ले, तो थह जास्पद-प्रदा