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मिश्रबंधु-विनोंद

४२ मिश्रबंधु-विनोंद वर्ण-वृद्धि रोकने को ही कवि ने विंध्याचल या उसके जंगल का वर्णन नहीं बढ़ाया, परंतु वाराह का वर्णन कथा के मुख्यांशों मैं है, सौं उसका कथन कुछ बढ़ाकर किया गया । फिर भी कवि ने उसके दाँत, रंबा एवं गुरुता को छोड़ अन्य बातों पर विशेष ध्यान नहीं दिया, और इतने छोटे-से दर्लन में दाराहों के कई स्वाभाविक गुण थौड़े-से शब्दों में बड़ी सुंदरता-पूर्दक कह दिए । बनैले का घुरघुराना, कान उठाए घोड़े को देखना, एवं उससे बचने कों ज़ोर से भागना खूब दिखाया गया है। जिस घने वन में हाथी-घोड़े का निर्वाह कठिनता से हो सकता है, उसमें विपुले क्लैश सहन करते हुए भी राजा का बनैले का पोछा न छोड़ना उसके धैर्य को दिखलाता है, और आगे अक्कट रूप से भी कवि ने उसका कथन किया है। इसी धैर्य के कारण कपटी मुनि और कालकेतु चाह ने राजा को भूख, प्यास, श्रम आदि द्वारा खूब थका लिया, जिससे वें मुनि को जान न सकें । उसले देखते ही देखते बिना कुछ कहे राजा को तालाब दिखाकर बाधित किया, जिससे आगे की कार्यवाही बढ़े और कृतज्ञतावश राजा को उस पर संदेह का विचार भो न हो । कुपदी को किसी प्रकार राजा से बातचीत करनी थी, सो उसके नग्गर की दूरी बहुत बढ़ाकर उसने यताई, तथा रात के घोर भाव एवं वन की गंभीरता का कथन किया कि जिससे राजा रात को वहीं रहने का संकल्प करे । बड़े *विराण जगन्मान्य सत्य सिद्धांतों का कथन करकै कथा में उनके उदाहरण प्रायः दिखला देते हैं । इसीलिये कवि ने कहा तुलस्सो असि भवितव्यता तैसी मिलद्द सहाइ । अषु न श्रावइ शाहि पहँ ताहि तहाँ लेइ : जाइ ।” इस कथा का सारांश यही दहा है। इससे राजा की आनेवाली आपदा को भी दिग्दर्शन करा दिया गया । 'बैरी पुनि छत्री