पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/६३

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भूमिका तौल-तौलकर रक्ले आते हैं। ऐसे लेख में उमंग के क्षिये स्थान नहीं है, परंतु फिर भी एक सहृदय समालोच को उननै अस्थुक्कि इस एड़ी, जिस उसने सहृदयत्ता दिखाते हुए अशुद्ध कथन न कहकर मैगजनेत अत्युझैि कहकर यल दिया । ऐसे विचारों के उठने का कारण यह है कि बहुत बोगों ने सभी पाश्चात्य पदार्थों को अपनी वस्तु से श्रेष्ठतर समझ रक्खा है । अतः वै तौर सोचते हैं कि साहित्य ही इस नियम से केसे छूट सकता है ? हम लोग बाजे-यस् से ही शेक्सपियर आदि की महिमा सुनने लगते हैं। उनकी रचनाएँ सराहनीय हैं भी और बहुत काल से प्रशंसा सुनते-सुनते हम लोग उन्हें और भी अधिक श्लाघ्य मानने लगे हैं। योरप में ऐसी दुख-शकता की शान पड़ी हुई है कि बोरा थोडे भी गुण की बहुत बड़ी प्रशंसा करते हैं। विद्वद्दर शा महान शय नै अँगरेज़ी-साहित्य का एक अच्छा इतिहास लिखा है। हमारे यहाँ प्रायः एम० ए० के कोर्स में रहता है। उसमें उन्होंने सौ-सवा सौ बार यह कहा है कि अमुक कवि का अमुक गुण संसारसाहित्य में सर्वश्रेष्ठ है । इधर हमारे यहाँ ग अच्छे पदार्थों की भी मुझे कैट सै प्रशंसा नहीं करते । इसका कारण चाहे ईष्र्या हो या आत्मगौरव का ह्रास, या कुछ और, परंतु हम लोगों में यह बात कुछ-कुछ पाई अवश्य आती है। इन कारणों से हमारे यहाँ के विद्वान् भी हिंदी-साहित्य का गौरव सुनकर कुछ चौंक अवश्य पड़ते हैं। एक आवक महाशय नवरत्न में प्रशंसा देखकर कहने लगे कि हम लोगों की समझ में तो यह भी उत्तम, वह भी उत्तम और सभी उत्तम हैं। ऐसी बात को लिखना उनकी राय मैं किसी विद्वान् को शोभा नहीं देता । यदि हम यह भी अधर्म, वह भी अधम और सभी अधम कहते, तो शुथिई समालोचक महाशय प्रसन्न होते । परंतु किसी वस्तु को निंद्य ठहराने में इस पर कुछ