पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/५३

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भूमिका इस अड़चन के सुगमता से दूर र सके । 'उधर अँगरेज़ न जान्दबाले ग्रामवासियों को सर्न के सम्झर्ने मैं को कष्ट पड़ेगा, उसका प्रकार अहुत दशा में अनिवार्य हो शायरी । देशी रियासत में अब तक इन्हू श६ अन् त्रि से संत का प्रयोग होता है, यह तुझे कि टाड साहब ने अपने राजस्थान में भी बहुतायत संवत् तिचे हैं । चिसिंह-सुज्ञ में भी संत्रों में ही समय लिया गया है। और भी सभी कच्चि दाबर इसी के प्रय झरते चलें आए हैं। किसी ने हिजरी, ईसवी आदि सन को व्यवहार नहीं किया । ऐसी दश में इतिहास-ग्रंथ में संवत ॐ चलन स्थिर रखकर हमसे कोई नई बात नहीं की, वरन् स्थिर प्राचीन प्रथा का अनुसरमञ्च किया है। उपाधि इभारे यहाँ धेड़े दिनों में समस्यापूर्ति करनेवाली एवं अन्य प्रकार की हिंदी-संबंधी सभा, समाज आदि स्थापित हुए थे और हैं। इनसे हिंदी-प्रचार में कुछ लाभ अवश्य हुश्रा, परंतु अनुपयोगी विषयवाल रचनायों की वृद्धि भी हुई है। इनमें से कुछ ने एक यह भी चाल निकाली थी * प्राचीन ऋथा ३ अनेक साधारण कार्यो को १ जिनमें कई का स्वर्गवास हो गया है, और कई अब भी मौजूद हैं। कारब्यु-धराधर, वसुबाभूषण, वसुंधरा-रत्र-जैसी भारी-भारी उपाधियाँ दीं । हमारी समझ में यह छोटे मुँह बड़ी बातें हैं। यदि दिलकुल साधारण कविगण वसुधभूषा हलाने लगे, तो बड़े-बड़े महानुभाव चे महामारा जिन उराधियों से विभूषित किए जायें ? यदि बड़े-बड़े हिंदी-रसिक किसी दो-एक परम यौम्य विद्वानों का कोई इन्चित उपाधि दें, जैसा कि बाबू हरिश्चंद्र में दी गई, तो शेष ज्ञोग उसे सहर्ष स्वीकार करें, परंतु जुड़ दर्जन साधारण मनुष्य को बड़ी-बड़ी अनुचित उपाधियाँ साधारण मनुष्यों द्वारा मिलने लगे,