पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/४३३

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सुकवि-माधुरी-माला का प्रथम पुण्य बिहारी-इत्र ( विहारी-सतसई पर रत्नाकरी टीका ) [ प्रणेता--ब्रजभाषा के आचार्य, काव्य- बाबू जगन्नाथदास बताकर' थी० ए० ! . | जिस त्रिहार-रत्नाकर के लिये साहित्य-संर बय में लालायित हो रहा था, वह प्रकाशित हो गया । यो त बिहारी-सतसई पर आज तक अनेक टीकाएँ तैयार हुई हैं। उनमें कुछ प्रकाशित और कितनी ही अप्रकाशित पड़ हैं। अपने ढंग की निराल होने के कारण, तसई पढी के खूब गई। हिंदी के धुरंधर काव्य-मर्मज्ञों ने अपनी-अपने वाद्ध और रुचि के अनुसार इस यः' टीका-टिप्पा भी नाम की ! पर उनमें कोई भी ट। ऐसी नहीं नजर आती, • जिस साँग-पूर्फ कह सकें । जि पाठ और अ६ टीक ऊँचा, उसने नहीं लिखें मारा । न पाठक और ल्य-प्रेमी प्रायः विभिन्न पाठ और अर्थ देखकर उड़ दुविधा में पड़ जाते : हैं कि किसे प्रमाणित और ठीक मानें, और किसे नहीं | हिंदी के ऐसे विश्व-विदित. कैवि की देसी दुर्दशा हमसे नहीं देखी