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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंधुविनोद खादै खा६ अरै हूँ मैक ना अवाद है। संदर बहुत प्रभु कीन् पाप पश्यों पैट, | अब हैं जनम लीन्हें सर्द ही ते सात है। ये महाशय बड़े प्रसिद्ध साधु तथा योगी झारसी, संस्कृत तथा भाषा के लुबोध पंडित और बैंति एवं योग-विषय के अच्छे विद्वान् थे । इन्होनें ज्ञान र नीति के भो दोहे उत्कृष्ट कहे हैं। इन कविता मैं व्रजभाधा, खड़ी दोढ़ी और पंजाब का मिश्रण है। इन कई • छपें ग्रंथ हमने छत्रपूर में देते हैं। शाहजहाँ के सुंदरदास भी उत्तम व्यंचे थे और उनकी भी आना तय की श्रेणी में हैं। उनका हाल समयानुसार उचित स्थान पर लिस्ट जायगा । पंडित चंद्रिका- प्रसाद तिवारी ने दादूपंथी कवियें के विषय में विशेष श्रम किंयः हैं। अपने निम्न छंदों से यह उचित निष्कर्ष निकाला है कि सुंदर- दारू दादूपर्धी संवत् १६५३ में उत्पन्न हुए र १७४६ में पंचत्व को प्राप्त हुए । सात वरस्त सौ मैं घटे इतने दिन की देह ; | सुंदर अतिम अमर है देह खेह की खेह । । सुंदत सत्रह सै छयाखा । कार्तिक की अष्टमी उला। तीजे पहर बृहस्पति बार । | सुंदर, मिलिया सुंदर सार । इकती ती तौरानैं इतने बरस रहंत } | स्वामी सुंदरदास को कोड नं. पायो अंत । से महाशय ११ वर्ष की अवस्था में फ़क़ीर हो गए थे। इनका कविताकाल संवत् १६७७ से १७४६ पर्यंत समझना चाहिए । सुंदरदासजीं समय-समय पर दादू द्वारे, नराखें, लाहौर, अमृतसर, ओलीबाटी, अयपूर, फतेहपूर आदि में रहे हैं।