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मिश्रबंधु-विनोंद

३३८ मिश्रबंध-विनों हैं। रस्स्तान में अपना समय अनुचित व्यवहार में भी श्यय किया था, अतः इनकी कविता का श्रादि-काल भी २१ वर्ष की अवस्था के प्रथम होना अनुमान-सिद्ध नहीं है। बिटुलेशजी को मरणोत्व १६४३ है, सो इन १६३० के लाभ उनका शिष्य होना जान पड़ता है। अतः इनका जन्म-काज हम १६१५१ वि० के लगभग समझते हैं और इनकी अवस्था ७० वर्ष की मानने से इनका मर- काल संवत् १६८५ मानना थड़ेगा । इन्होंने लिखा है कि ये महाशय छादशाह-वंश के पठान थे । २५२ वैष्णव की वार्ता में । लिखा है कि इसखानजी पहले एक बनिर के लड़के पर बहुत सङ्क थे। ये सदा उसी के पीछे-पीछे फिरा करते और उसका जूठा खाया करते थे। इनकी हँसी भी हुआ करती थी, परंतु ये कुछ द मानते थे। एक छार र बैद ने आपस में बातचीत करते-करते कहा कि रवर में पर ध्याह्न लगाई जैसा कि संक्वान् ने साहूकार के अङ्ककै में लगाया । इस्ट पर रवान के यह वार्ता पूछने पर उन वैष्णों नें : इसे फिर कई दिया । तब रसखान ने कहा कि परमेश्वर का रूप देको हो विश्वास दें। इस पर उन वैष्बों ने श्रीनाथजर आ चित्र इन्हें दिखाया । चित्र में देखते ही इला चित्त छड्के से चटकर विष्णु भगवान् में नाग गया और ये वेष बदलकर श्रीनाथजी के मंदिर में जाने लगे, यरे तु पौरिया ने न जाने दिया । तब ये तीन दिन तक गोविंदकुंड पर विना कुछ खाए-पिए पड़े रहे । इस पर स्वामी बिट्ठलनाथर्ड को दया श्राई और उन्होंने रसखान के शुद्ध होने में ईश्वरदेश समझ मुसलमान होने पर भी इन्हें शिष्य कर लिया। उस समय से इन पदवी इतनी बढ़ी कि इनकी इनः गोसाईजी के २३३ मुख्य शिष्य में होने लगी और इन श्रेष्ठ, वैष्व समझकर स्वामीजी के पुत्र गोकुलदार्जर ने २२ शर्यों की चार्ता में २१वें गैर पर इनका चरित्र लिखा ।