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मिश्रबंधु-विनोंद

. मिश्रर्थ-विभो । उर कुमकुम कोकिल-क्यल बेहि तखि लात मार । बैथुरे सुयरे घेऊने घने बनें घुबुवार । रसिझन को ज़ीर-से बाजा हो बार । अकयर बर न नर पति-पति हिंदुदान ; करन चहन जेईि करन स हेन इन सनमान ! अचरज सोहिं हिंदू ढुरका बादि करत संग्राम । छ इपित दीपियत अब झाश धाम । .: ( ८४ } गोस्वामी गोकुलनाथजी । महाप्रमू श्रीवल्लभाचार्यजी के पुत्र गोस्वामी बिद्यनाथ के ये महाराज आत्मज थे । इनके दो गद्य-प्रेय चौरासी वैष्णवे की वार्ता और २५२ वैश्व की दर्ता प्रसिद्ध हैं और दोनों हमारे पुस्तकालय में वर्तमान हैं। अङ्कमा गोरखनाथजी के प्रायः २०० वर्षे पीछे गद्य लैलन की और इन्हीं पिता-पु ने समुचित ध्यान दिया । इनकी लेखप्रक्षाळी प्रशंसनीय है और उसके अवलोकन से विदित होता है कि बीच में भी गश लिखने की प्रथा एकदम बंदे हों हो गई थी। इन दोनों ग्रंथों का विश्य इनके नाम ही से प्रकट होता है। इनसे तात्का- क्षिक कई महासाअों का समय स्थिर हों अाता है। इनका कविता- कल संक्त् १६२५ से प्रारंभ होना प्रतीत होता है। गोस्वामीजी ने साहित्य का विचार छोड़कर साधारण ब्रजभाषा में भक्ल के जीवन उदाहरण--- श्रीगौसाईं जी के दर्शन करके अधुरादास की आँखन में से असून को प्रथाह चल्यों सो देखिॐ अच्युदास की श्रीगोसाईजी ने अच्युहदास सों पूछौ जो अच्युत्दास तुम जैसा दुख कहा है। ।।... { ८५ ) श्रीदादूदयालजी। इन्द महाश का अन्म सँधस् १६०१ में हुआ थी और सैत् १६०