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मिश्रबंधु-विनोंद

३८४ विश्वबंधु-चिोद के धियों को सुरद्वार माना है, यथा --*तुळस गैय दुबी भए सुबिन के हुरदार; इनॐ ग्रंथदिं में मिली भार! विविध प्रकार इस हे के-लिखतें समय दास ने हिंदी के इर्दै प्रसिद्ध वियों के नाम लिखे, परंतु सूर, केशव, देव और बिइग्र-ऐसे धुरंधर कवियों हुन्न को छोड़ दल गया और तुबसी की स्तुति की । श्रीपति-ओले महाकवि ने भी गैग को ‘रहीं न निसानी हूँ महि मैं गरद क- चाबा पद उठाकर अपने शर-वर्शन के एक छंद में यथातथ्य रख दिया ! इनका ढोक में इतना आदर था किं सुना आता है कि ये सदैव शाही दरबार में रहे और निदाना ने इन्हें एक ही छंद पर छत्तीस लाख रुपए दिए थे। गंग की जो कुछ कविता मिलती है उससे विदित होता है कि चे बड़े ही धुरंधर कवि थे । वृत्रै०ख० से इनके नानखान्य ऋवित्त- नामक ग्रंथ का पता चलता हैं। इन्होंने इजा को प्रधान रक्खा है, परं तु इनके काब्य मैं मिढ़ी भर विविध अल्लाह' ! इन्ट्राने एक छंद फ़ारसी-मिश्रित कही है, जैसा कि इनके आश्रयदाता स्नानखान किया करते थे । इस कृत्व में उर्दू इता की नन्न विशेष है और एक स्थान पर इन्होंने अतिशयोक्लि की भी ढग तोड़ दी है ! ये हास्य रस ३ अाचार्य थे और इन्होंने यु क्ता भी बड़ी ही उत्कृष्ट है। इनहीं समस्त रचना में कुछ ऐसा अनापन देख पड़ता है कि ठाकुर आदि दो-चार कवियों को छोड़कर किसी में भी इसका पता नहीं लगता है उपर्युक्त कथन के उदाहरणार्थ पंग के कुछ छ'द इस नीचे • लिखते हैं। गंग ने हम सेनापने की श्रेणी का कवि समझते हैं । बैठी हैं सचिन सँगइ यि ॐ गइन सुन्यो, । सुख के समूह में वियोग- िभरकी ; ... शैग है झिवि सुरै नै प्रश्न बह्यो, छत्र ही ढाके तन भई बिथा जर की!