पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/३३

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| . भूमिका ( ३ ) बद्ध किया और संभव है कि ऐसा करने में हमने अनेक भूलें की हो, पर इमारी समझ में यह बिल्कुल नहीं आता कि इसमें हमने पवित्र कम क्या काम किया ! *"तावा” के विध्य में हम यही कहना चाहते हैं कि उसकी विचन प्रथम संस्करण की भूमिका के अंतर्गत 44अंर्ण-विभाग और “ऋम्यिोङ्कर्ष का परखना.शीर्षक दो प्रबंधैं में पृष्ठ ३७ से १६ तुक्क हमनें कुछ विस्तार के साथ की है। यदि इसे देखे बिना ही कोई इन्हीं प्रश्नों के उत्तर हमसे माँगने लगे तो हम की क्यः सकते हैं ? हाँ, यह अवश्य संभव है कि हैररनु हुर हम यही सोचने लगे कि मदता ससपवनें ॥ ॐ सुअता गहि भूमि में डारन है।' यही हाल उस आलोचकों का है ॐ “भाषासंॐ धी विचार-शीर्षक भूमिकांश १ पृष्ठ ६४ से ६४ तळ ) देखे विना ही इमारी इस बिषयक अनेक प्रकार की अशुद्धियाँ भिवालने दौड़ते हैं। निदान ऐसी आलोचनश्र इत्तर दैनः स्यर्थ ही प्रतीत होता है और इस से हम उनके उत्तर देने में प्रायः असमर्थ रहा करतें हैं। कुछ छौचना कें इत्तर कभी-अभी दिए भी परेर श्री कृतिय बातों को ठीक्क पाकर हृमने इनसे लाभ भी उठाया । अथम संस्करण झी ऐसी भूलें इस संस्करण से यथासँभय निमछ दी गई हैं। इमर्ने सुशः है कि हिंदी के एक 'लेकुर” महाशय ‘ने कई बार यह यि प्रकट की है कि विनोंद” हिंदी-कवियों एवं लेखक श्री इक नामावजी { Catalogue } मात्र है। यदि सच्चे. हृदय से उनकी यही राय है तो इस लैक्चरर महाशय की वास्वव में बड़े ही साहसकर्ता कहने से रुक नहीं सवै । यदि एक-एक कवि का काम-मात्र दस-दस बार-बारह पृष्ठों तक लिखा जा सकता हों, यदि केवल ३०१२ कवियों की कैटलॉग ( सुची } अना देने • के लिये प्रायः १५०० पृष्ठों की आवश्यकता पड़ जाती हौं, यदि दश इस्ता ही चाही प्रसिद्ध कहावत अब वास्तव में क्ष