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मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंधु-विनोद तथा इन भहाराओं के अनुयायी भावृ:-साहित्य पर इतना अम । किए होते, तो अङ्ग दिन इतनो परिपूर्णता कदापि देखने के हसीब । होर्दः । झिंद गोस्वामी तुलसरदासजी को छोड़कर ये सब महात् अपने को कवि समझते ही न थे और न कभी वे कहते थे । ये झोग तो भजनानंद और ऋण-समान के लिये ही छैदों की रचन्द्र रखे थे । छेड-रचना से उत्तम कवि कहलाने का इनका सचमुच अभिप्राय न था । पर इस अभिप्राय के न होने से भी इन महानुभ्यः से साहित्यति बहुत अच्छे हुई और इनकी भक्ति के कारण शह . समय कृक्ति के लिये बड़ा उपयों हो गया । । अतः यहू अपूर्व समय हेर्द-कत्रि का कल्पवृक्ष था। हिंदी में इस समय में ऐसे-ऐसे महाकद उत्पन्न किए कि जिनके जोड़ के संसार की प्रायः किसी भी भाषा में कृश्मिता से मिलने । मुहार श्रीसूरदास, गोस्वामी श्रीहितहरिवंशज, हरिदासजी, तुलसीदासजी एवं केशवदासजी ने इस समय के सुशोभित किया है, जैसा किं इस ऊपर देख चुके हैं। इनके अतिरिक्त भी कवि-शिरोमास - भद्र, मुबारक, रसखान, गंग, नरोत्तम, भकशिरोमणि हिपटनरंजन, अरदास, नाभादस, दादूदयाल था जैन-कवि-शिरोमणि बनारसं- दास आदि इसी अमूल्य समय में हुए हैं । इस समय में अकबरशाह अदि बड़े-बड़े बादशाह तक ने हिंदी का ऐसा दर किया कि वे स्वयं कविता करने लगे । कैज़ी, अदुल्लु , स्वान वाना रहस, महाराजा बीरबल ( ब्रह्म ), महाराजा टोडरमल आदि ने इसी समय कविता करके हिंदी के समादर किया । दास्तव में ब्रजभाषा-संबंधी प्रौद हिंदी-कविता का इसी समय जन्म हुआ है। इसी समय सूरदास ने पदों में, तुलसीदास ने दोहा-चौपाइयों में, और केशवदास ने विविध छंदों में कथा लिखने की प्रालि याई, जो अछछि स्थिर हैं ! रीतिग्रंथ र दिशेणतया अलंकार