पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/३१

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नहातें भी श्रादेगी, जिससे प्रतीत होता है कि प्रायः १७००-१८०० से कम पृष्ठ एवं कोई १५०० में कम लेखक न होंगे तथा चार भाग में ग्रंथ निकालना पड़ेगा। मूल्य भी इन्हीं एवं अन्य स्पष्ट कारणों से अवश्य ही कुछ बड़ आया, यद्यपि हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रकाशक महाशय इसमें अपने हिंदी-प्रेम का परिचय देते हए जितना. कम मूल्य हो सकेगा नियत करो। इस बार अँगरेजी भाषा की भूमिका पाने की आवश्यकता नहीं समझी गई। इस संस्करख की दो विशेष ध्यान रखने योग्य बातें नीचे दी जाती हैं (.)पुराने ऋवियों तथा गायकारों के समय में ज्ञान-विस्तार के कारण कभी-कमी हेर-फेर करना पड़ा है। ऐसी दशा में उनके पराने नंबर काटे नहीं गए बरन नवीन नंबर का हवाला वहाँ पर दे दिया गया है। उसका कारण स्पष्ट ही है। जोग अब छहों किसी कवि का हवाला"विनोद" के संबंध में देते है तब प्रायः उसका नंदर ही लिख देते हैं क्योंकि प्रत्येक संस्करण में पृष्ठ-संख्या का हेर-फेर हो जाना अनिवार्य है। इससे यदि नंबरों में भी हेर-फेर कर दिए जायें तो पुरा गड़बड़ मच जाय । इसी कारण आईन ग्रंथों में दनाएँ जैसी की लेखी अनार रखते हैं और यदि कोई दफा मनसून होती है, तो भी उसना नंबर अपने स्थाच पर बना ही रहता है, तथा यदि कोई नई दका बड़ी, तो वह अपने समुचित स्थान पर इस भाँति लिखी जाती है कि दुका १०८ अ, दफा १३५ ब, दफा ३०४ अ, इत्यादि। . इस प्रकार भारतीय दंड-संग्रह ( Indian Penal Code ) को दक्षाओं के पूर्णक (Whole number ) जैसे खॉर्ड मेकाले के समय में थे, वैसे ही आज भी वर्तमान हैं। यद्यपि अनेक दफाएँ मनसख हो चुकी व अनेक नई बन गई हैं। (२) ऊपर लिखे नियम के अनुसार नर-ज्ञात कवियों एवं बेखकों के नंबर उस समय के अन्य ऋवियों व लेखकों के बर के