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मिश्रबंधु-विनोंद

३३६ मिश्रबंधु-विनोद : से धूप झक-पिता को छोड़ अप श्रमिथुर्जा में रहने हुये | और अंत तक ब्रजमंडल ईः में रहे । इनका शरीरात सं८ १६२८३ असार पाराल-श्रम में हुआ । इनका निवास स्थान विशेस्ता गवळ ३ था। इन्होंने सृरसागर, सूरसार- वली, साहित्यलहरी, च्ह लुट र नल-दमयंती-नामक व अंधे की रचना की । चैथे अँार्षिक खोज में इनका एक ग्रंथ प्रया- नमक मिला है। उनमें सृरस प्रीतम और परमोत्कृष्ट हैं। कहा जाता है कि इसमें हः एक दम् पद है, परंतु आजकल जी अंकि पुरस्र अली हैं, उनमें पत्र-छः हज़ार से अGि पद न मिळूहे । इसमें गोशू रूप से समस्त भागवत के कथा कही गई है, परंतु विस्तार-पूर्बक जवाः कृष्द की तीव्दार्थों का दर्शन है। सूरसारली सूरसागर का सारांश हैं और साहित्य ली में कुर-कृद दृष्टकूट का संग्रह है। व्याह और नवं- दुमयंती ॐ ॐथा के पर उनके नाम ही प्रकट करते हैं। कैटालागस अटखोरम में इनकी हरिवंशटक्य नाम की एक और पुस्तक लिखी है। पुदसंग्रह. इस स्कंध टीका, एवं नाग- झीला, थह हीन ग्रंथ खेज में इनके अंश मिले हैं। तृ० ३० र ३ में इनके भागवत नृथा सूरपचीस-चमक ग्रंथ ई मिले हैं। " और कविता में भक्ति का मुह सर्वधन है । इनकी भक बारश्य और सख्यभाव के र्थः । थे महाशय एक ईश्वर के उपासक थे। और राम, कृ तथा विश्णु को एक ही समझते थे । इन्होने शुद्ध भाषा में कविता की और उपमा, रूपक, दख- सिया, प्रबंधन एवं अन्य काव्यांगों को अपनी कविता में अच्छा संझिदे किया । अपने अपने प्रिय त्रियों के वन बहुत ली सांग- परं और बिस्तर से किए। इस युद्ध में शायद संसार साहित्य में आदी मान्यता करनेवाला कोई भी कवि नहीं हुआ । अक्लचंद्र