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मिश्रबंधु-विनोंद

३३६ मिश्रबंधु-विनोद गोस्वामी हितहरिवंशजी को राधाजी ने स्वप्न में मंत्र दिया और वश से दें अपने से उन्हीं का शिव्य मानने लगे। हितजी ने एक पृथक् संप्रदाय चलाया, जिसे हित-संप्रदाय कहते हैं । यह अनन्य संप्रदुग्य, हिल अनन्य संप्रदाय, तथा राधावल्लभीय संप्रदाय भी कहलाता हैं। इसमें विशेषतया राधाजी की प्रधानता है । इसमें स्वयं इितहरिवंशी एक परमोत्तम अदि थे और कितने ही अन्य उत्कृष्ट कदि हुए हैं, जिनमें हितध्रुवजी शुवं चाचा बूंदा- वृनजी प्रधान थे । गणना में इस संप्रदाय एवं वङ्गमीय संश- दाय के कवि प्रायः दादर थे और उसमता में भी दोनों संप्रदाय ॐ कवि समान कहे जा सकते हैं, क्योंकि वल्लभीय संप्रदाय में सृरदासजी अद्वितीय थे, तथापि हित-संप्रदाय में भी स्क्यं हितजी तथा छावाजी परमोक्षम कवि थे और कुल मिलाकरे ये दोन संप्रदाय अन्य-प्रौढ़ता में समान ही हदेंगे । रामानंदी संप्रदाय में स्वयं तुलसीदासजी तथा अन्य उत्तम कादगण थे, सो यह संप्रदाय भी कायोत्कर्ष में उन्हें दोनों संप्रदायों के समान था | टी-संप्रदाय में भी अच्छे-अच्छे कवि थे, परंतु गणना तथा उन्समा दोहों में वह इन तीनों की समानता नहीं कर सकता। में बातें केवल काच्योत्कर्ष के अनुसार लिखी जासी हैं। भाले- भाव एवं धार्मिक महत्व के विषय में हम कुछ भी तुजन नहीं करते । इन भाव में ये सभी संप्रदाय महान् थे। गैर-संप्रदाय की विशेषतः बंगाल में रही और हिंदी में उसके बहुत कवि इस स्थान पर भक्ति के विलय में भी दो-एक बात का लिखा श्त जान पाइदा है। भक्ति पाँच भावों से की जाती है, अर्थात् शत, दास, वात्सल्य, सल्य और श्रृंगार । प्रहलाद की भक्ति शांताब में थी, तथा हुनुमान, रामानंद, सुलसीदास श्रादे