पृष्ठ:मिश्रबंधु-विनोद १.pdf/२२४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१८८
मिश्रबंधु-विनोंद

मिश्रबंध-दि इसमें अह साफ नहीं हैं किं अन्य के लिये शब्द तथा अर्थ दोन की रमीयता अवश्य है, अथवा एक की भी रमणीयत से वाक्य कय हो सका है। . ( ८ } लोकचराम्देदात प्रबंधः कान्यनामझाक ।। इस लक्ष में शब्द- रचता, शब्दार्थ-श्मणीयता एवं इन दोनों ॐ रयावाला कोई नई अर्थ बहुत ठीक प्रकट नहीं होतः । फिर प्रबंध कद के कई अर्थ हैं। ग्रह वध्यते इति प्रबंधः । इस हिझा से होला र नियम से चञ्चन, बाने का नियमापुर थाना अदि सब अव्य हो जायेंगे । यह वाग्छ बिलकुल ठीक १६ } वाक्य अस्य वा एकहू जहँ रमनीय लु हो । उपर्युक्ल लक्षणों पर विचर छै यह स्पष्ट विदित है कि काश्य के लिये वाक्य में शब्दु-रमणीयता, या अर्थ-मया या शब्दार्थ- मदतर का होना आवश्यक है। इनमें किसी के होने से वाक्य काय इशा और जिइनी विशेष रमीयता होगी, इतना ही बहु उत्कृष्ट हुा । इन्हीं सब बा को ध्यान में रखकर हमने इ7 ॐ स्वर में ब्यक्षण सं० १३१७ मैं लिख दिया थुः । इसमें अह न सोचना चाहिए कि हुम् श्री के क्षणों के अशुद्ध ठहराकर अजा द्ध बनाते हैं ! हम अारों ही के सहारे से कुछ लक्षद्ध लिखने-मात्र का साइस क्रिया है । काव्य के शुद्ध लक्ष्य अनिच्छ के पथ-प्रदर्शन का भइत्व केवल जगन्नाथ पंडितराज के

इन लक्ष न ट है %ि ऋन्य गद्य और पद्य दोनों में हो

मान्य है। गय, फ्ध और संगति में छंद छोड़र मुख्य भैद इतना शी है: मद्य में इर्ष या शोकादक भाव 6houghts की आप विचारों feelings का बाहुल्य रहा है, अर्थ में यह